Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
९२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ४२. - तित्थयरणामगोदकम्मस्सेत्ति एत्थ 'उदओ तेणेत्ति' दोण्णं पदाणमज्झाहारो कायब्बो, अण्णहा अत्थाणुवलंभादो । जस्स जेसि जीवाणं इणं एदस्स तित्थयरणामगोदकम्मस्स उदओ तेण उदएण सदेवासुर-माणुसस्स लोगस्स अच्चणिज्जा त्ति संबंधो कायव्यो । चरु-बलि-पुप्फफल-गंध-धूव-दीवादीहि सगभत्तिपगासो अच्चणा णाम (एदाहि सह अइंदधय-कप्परुक्खमहामह-सव्वदोभद्दादिमहिमाविहाणं पूजा णाम । तुहुं णिहवियट्ठकम्मो केवलणाणण दिट्ठसव्वट्ठो धम्मुम्मुहसिहगाहीए पुट्ठाभयदाणो सिट्टपरिवालओ दुणिग्गहकरो देव त्ति पसंसा वंदणा णाम । पंचहि मुट्ठीहि जिणिंदचलणेसु णिवदणं णमंसणं । धम्मो णाम सम्मदंसण-णाणचरित्ताणि । एदेहि संसार-सायरं तरंति त्ति एदाणि तित्थं । एदस्स धम्म-तित्थस्स कत्तारा जिणा केवलिणो णेदारा च भवंति ।
एवमोवाणुगमो समत्तो ।)
सूत्रमें 'तीर्थकर नाम-गोत्रकर्मका' यहां 'उदय' और 'उससे' इन दो पदोंका अध्याहार करना चाहिये, अन्यथा अर्थकी उपलब्धि नहीं होती। जिसके अर्थात् जिन जीवोंके, यह अर्थात् इस तीर्थकर नाम गोत्रकर्मका उदय होता है वे उसके उदयसे देव, असुर एवं मनुष्योंसे परिपूर्ण लोकके अर्चनीय होते हैं, ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये । चरु, बलि, पुष्प, फल, गन्ध, धूप और दीप आदिकोंसे अपनी भक्ति प्रकाशित करनेका नाम अर्चना है । इनके साथ ऐन्द्रध्वज, कल्पवृक्ष, महामह और सर्वतोभद्र, इत्यादि महिमाविधानको पूजा कहते हैं । आप अष्ट कौको नष्ट करनेवाले, केवलज्ञानसे समस्त पदार्थोंको देखनेवाले, धर्मोन्मुख शिष्टोंकी गोष्ठीमें अभयदान देनेवाले, शिष्टपरिपालक और दुष्टनिग्रहकारी देव है, ऐसी प्रशंसा करनेका नाम वन्दना है । पांच मुष्टियों अर्थत् अंगोंसे जिनेन्द्र देवके चरणों में गिरनेको नमस्कार कहते हैं। धर्मका अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है । चूंकि इनसे संसार-सागरको तरते हैं इसीलिये इन्हें तीर्थ कहा जाता है । इस धर्म-तीर्थके कर्ता जिन, केवली और नेता होते हैं ।
इस प्रकार ओघानुगम समाप्त हुआ।
१ सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । र. श्रा. ३.
२ जं नाण-दंसण-चरित्तभावओ तबिवक्खभावाओ। भवभावओ य तारेइ तेण तं भावओ तिथं ॥ विशेषा.१०३८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org