Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ४२.]
तित्थयरुदयपहावपदसणं (पवयणप्पहावणदाए- आगमट्ठस्स पवयणमिदि सण्णा । तस्स पहावणं णाम वण्णजणणं तब्बुड्डिकरणं च, तस्स भावो पवयणप्पहावणदा । तीए तित्थयरकुम्म बज्झइ, उक्कट्ठपवयणप्पहावणस्स देसणविसुज्झदादीहि अविणाभावादो । तेणेदं पण्णरसमं कारणं ।
अभिक्खणमभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए - अभिक्खणमभिक्खणं णाम बहुवारमिदि भाणदं होदि । णाणोवजोगो त्ति भावसुदं दव्वसुदं वावेक्खदे । तेसु मुहुम्मुहुजुत्तदाए तित्थयरणामकम्मं बज्झइ, दंसणविसुज्झदादीहि विणा एदिस्से अणुववत्तीदो । एदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामकम्मं बंधंति । अधवा, सम्मइंसणे संते सेसकारणाणं मज्झे एगदुगादिसंजोगेण बज्झदि' त्ति वत्तव्वं ।)
। जस्स इणं तित्थयरणामगोदकम्मस्स उदएण सदेवासुरमाणुसस्स लोकस्स अच्चणिज्जा वंदणिज्जा णमंसणिज्जा णेदारा धम्म-तित्थयरा जिणा केवलिणो हवंति ॥ ४२ ॥)
___ प्रवचनप्रभावनासे तीर्थकर नामकर्म बंधता है- आगमार्थका नाम प्रवचन है, उसके वर्णजनन अर्थात् कीर्तिविस्तार या वृद्धि करनेको प्रवचनकी प्रभावना और उसके भावको प्रवचनप्रभावनता कहते हैं। उससे तीर्थकर कर्म बंधता है, क्योंकि, उत्कृष्ट प्रवचनप्रभावनाका दर्शनविशुद्धतादिकोंके साथ अविनाभाव है। इसीलिये यह पन्द्रहवां कारण है।
___ अभीक्ष्ण-अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्ततासे तीर्थकर कर्म बंधता है- अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णका अर्थ 'बहुत वार' है । ज्ञानोपयोगसे भावभुत अथवा द्रव्यश्रुतकी अपेक्षा है। उन (भाव व द्रव्य श्रुत) में बार बार उद्युक्त रहनेसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है, क्योंकि, दर्शनविशुद्धतादिकोंके विना यह अभीक्ष्ण-अभीक्षण ज्ञानोपयोगयुक्तता बन नहीं सकती।
इन सोलह कारणोंसे जीव तीर्थंकर नामकर्मको बांधते हैं । अथवा, सम्यग्दर्शनके होनेपर शेष कारणों से एक दो आदि कारणों के संयोगसे तीर्थंकर नामकर्म बंधता है, ऐसा कहना चाहिये।
जिन जीवोंके तीर्थकर नाम-गोत्रकर्मका उदय होता है वे उसके उदयसे देव, असुर और मनुष्य लोकके अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, नेता, धर्म-तीर्थके कर्ता जिन व केवली होते हैं ॥ ४२ ॥
१ तान्येतानि षोडशकारणाणि सम्यग्भाव्यमानानि व्यस्तानि समस्तानि च तीर्थकरनामकर्मास्रवकारणानि प्रत्येतव्यानि । स. सि. ६, २४. त. रा.६,२४,१३. तीर्थकरनामकर्मणि षोडश तत्कारणान्यमन्यनिशम् । व्यस्तानि समस्तानि च भवन्ति सद्भाव्यमानानि ।। है. पु. ३४, १४९. एते गुणाः समस्ता व्यस्ता वा तीर्थकरनाम्न आसवा मवन्तीति । त. सू. भाष्य ६, २३.
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