Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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६४ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
देवा अस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ३१ ॥
सुगमं ।
मिच्छारट्टी सासणसम्माहट्टी असंजदसम्माहट्टी संजदासंजदा पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा बंधा । अप्पमत्त संजदद्धाए संखेज्जदिभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३२ ॥
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' मिच्छाइडि पहुडि० ' एदेण सुत्तावयवेण बंधद्धाणं गुणगयसामित्तं च परुविदं । अप्पमत्तसंजदद्धाए० ' एदेण बंधविणट्ठाणं परूचिदं । तिण्णं चेव परूवणादो देसामा सियसुत्तमिणं । तेणेदेण सूइदत्थे भणिस्सामा । तं जहा- एदस्स पुव्वमुदओ वोच्छिज्जदि पच्छा बंधो, देवाउअस्स असंजदसम्मादिट्ठिचरिमसमए वोच्छिण्णुदयस्स अप्पमत्तद्धाए संखेज्जदिभागं गंतूण बंधवोच्छेदुवलंभादो । परोदणेव बंधो, सोदणेदस्स तित्थयरस्सेव बंधविरोहादो । णिरंतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधक यंतराभावादो ।
मिच्छाइट्ठिस्स देवाउअ बंधंतस्स चत्तारि मूलपच्चया । एगसमइया जहण्णुक्कस्स
( ३, ३९.
देवायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३१ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, और अप्रमत्तसंयत बन्धक हैं । अप्रमत्तसंयतकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ३२ ॥
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'मिथ्यादृष्टि आदि अप्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं' इस सूत्रांश द्वारा बन्धाध्वान और गुणस्थानगत स्वामित्वकी प्ररूपणा की गई है । 'अप्रमत्तसंयतकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है' इससे बन्धविनष्टस्थानकी प्ररूपणा की है । इन तीन अर्थोंकी ही प्ररूपणा करनेसे यह सूत्र देशामर्शक है। इस कारण इससे सूचित अथको कहते हैं । वह इस प्रकार है- देवायुका पूर्वमें उदय व्युच्छिन्न होता है पश्चात् बन्ध, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें इसके उदयके व्युच्छिन्न होनेपर पश्चात् अप्रमत्तकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्धव्युच्छेद पाया जाता है । इसका बन्ध परोदयसे ही होता है, क्योंकि, तीर्थकर प्रकृतिके समान स्वोदयसे इसके बन्ध होनेका विरोध है । बन्ध इसका निरन्तर है, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धसे किये गये अन्तरका यहां अभाव है ।
देवायुको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टिके मूल प्रत्यय चार होते हैं। एक समय सम्बन्धी
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