Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ३६. ]
ओघेण आहारसरीर-तदंगोवंगाणं बंधसामित्त परूवणा
[ ७१
सामी । वद्धाणं सुगमं । अपुव्वकरणद्धं सत्तखंडाणि काऊण छखंडाणि उवरि चडिय सत्तमखंडावसेसे बंधो वोच्छिनदि । सुत्ताभावे सत्त चैव खंडाणि कीरंति त्ति कथं णव्वदे ? ण, आइरियपरंपरागदुवदेसादो | तेजा - कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस- फास अगुरुवलहुव-उवघादणिमिणणामाणं मिच्छादिविम्हि चउब्विहो बंधो, धुवबंधित्तादो । उवरिमगुणेसु तिविहो, धुवत्ताभावादो । अवसेसाओ पपडीओ सादि - अद्भुवियाओ, पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो, परघादुस्सासाणमपज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणकाले पडिवक्खबंधपयडीए अभावे वि बंधाभाववलंभादो | आहारसरीर-आहारसरीर अंगोवंगणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ३५ ॥
सुगममेदं ।
अप्पमत्त संजदा अपुव्वकरण पट्टवसमा खवा बंधा । अपुव्वकरणद्धाए संखेजे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३६ ॥
प्रमत्तसंयतादिक स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है। अपूर्वकरणकालके सात खण्ड करके छह खण्ड ऊपर चढ़कर सातवें खण्डके शेष रहनेपर उनका बन्ध व्युच्छिन्न होता है ।
शंका--सूत्र के अभाव में सात ही खण्ड किये जाते हैं यह किस प्रकार ज्ञात होता है ?
समाधान- -नहीं, यह आचार्य परम्परागत उपदेश से ज्ञात होता है ।
तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण नामकर्मोका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध है, क्योंकि ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं । उपरिम गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध है, क्योंकि, वहां ध्रुव वन्ध नहीं है । शेष प्रकृतियां सादि व अध्रुव बन्धसे युक्त है, क्योंकि, उनको प्रतिपक्ष प्रकृतियों का बन्ध सम्भव है; परघात और उच्छ्वासको अपर्यात संयुक्त बांधने के काल में प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धके अभाव में भी उनका बन्ध नहीं पाया जाता है ।
आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मो का कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३५ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक बन्धक हैं । अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभागोंको विताकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं || ३६ ॥
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