Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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८२]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ४१. स्सुवलंभादो वा । जदि दोहि चेव तित्थयरणामकम्मं बज्झदि तो चरित्तविणओ किमिदि तक्कारणमिदि बुच्चदे ? ण एस दोसो, णाण-दसणविणयकजविरोहिचरणविणवो ण होदि त्ति पदुप्पायणफलत्तादो ।
___ अधवा, सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए चेव तित्थयरणामकम्म बज्झइ । तं जहाहिंसालिय-चोजब्बभ-परिग्गहेहिंतो विरदी वदं णाम । वदपरिरक्खणं' सीलं णाम । सुरावाण-मांसभक्खण-कोह माण-माया-लोह-हस्स-रइ-सोग-भय-दुगुंछित्थि-पुरिस-णबुसयवेयापरिचागो अदिचारो; एदेसिं विणासो णिरदिचारो संपुण्णदा, तस्स भावो णिरदिचारदा। तीए' सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए तित्थयरकम्मस्स बंधो होदि । कधमेत्थ सेसपण्णरसण्णं संभवो ? ण, सम्मइंसणेण खण-लवपडिबुज्झण-लद्धिसंवेगसंपण्णत्त-साहुसमाहिसंधा
खींचा गया पाया जाता है।
शंका-यदि दो ही विनयोंसे तीर्थंकर नामकर्म बांधा जा सकता है, तो फिर चारित्रविनयको उसका कारण क्यों कहा जाता है ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, शान दर्शनविनयके कार्यका विरोधी चारित्रविनय नहीं होता, इस बातको सूचित करनेके लिये चारित्रविनयको भी कारण मान लिया गया है।
___ अथवा, शील-व्रतोंमें निरतिचारतासे ही तीर्थकर नामकर्म बांधा जाता है। वह इस प्रकारसे-हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रहसे विरत होनेका नाम व्रत है । व्रतोंकी रक्षाको शील कहते हैं । सुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद, इनके त्याग न करनेका नाम . अतिचार और इनके विनाशका नाम निरतिचार या सम्पूर्णता है, इसके भावको निरातिचारता कहते हैं । शील-व्रतोंमें इस निरतिचारतासे तीर्थंकर कर्मका बन्ध होता हे।
शंका-इसमें शेष पन्द्रह भावनाओंकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान- यह ठीक नहीं, क्योंकि क्षण लवप्रतिबुद्धता, लब्धि संवेगसम्पन्नता,
१ अप्रती · -परिवखणं', आ-काप्रयोः परिक्खणं ' इति पाठः ।
२ अहिंसादिषु व्रतेसु तत्प्रतिपालनार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु शालेषु निरवद्या वृत्तिः शील व्रतेष्वनतिचारः । स. सि. ६, २४. चारित्रविकल्पेषु शील-व्रतेषु निरवद्या वृत्तिः शील-व्रतेवनतिचार:-अहिंसादिषु व्रतेषुxxx निखद्या वृत्तिः काय-वाङ्-मनसां शील-व्रतेप्वनतिचार इति कथ्यते । त. रा. ६, २४, ३. शीलानि च व्रतानि च शील-व्रतम्, अत्रापि समाहारद्वन्दः, तस्मिन् । तत्र शीलानि उत्तरगुणाः व्रतानि मूलगुणाः तेषु निरतिचारः सन् तीर्थकरनामकमे वध्नातीति क्रियायोगः । प्रव. पृ. ८३.
३ अप्रतौणिरदिचारदीए', आ-काप्रत्योः ‘णिरदिचार तीए' इति पाठः।
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