Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ३८.] ओघेण तित्थयरणामस्स बंधसामित्तपरूवणा
[७१ किण्ण बंधो ? ण, तत्थ तित्थयराइरिय-बहुसुद-पवयणविसयरागजणिदसंसकाराभावादो । देवगइसुजुत्तो आहारदुगबंधो, अण्णगईहि सह तब्बंधविरोहादो । मणुसा चेव सामी, अण्णत्थ तित्थयराइरिय-बहुसुदरागस्स संजमसहियस्स अणुवलंभादो । बंधद्धाणं बंधविणट्ठठ्ठाणं च सुगम, सुत्तणिद्दिट्टत्तादो । सादिओ अद्धवो च बंधो, आहारदुगपच्चयस्स सादि-सपज्जवसाणत्तदंसणादो।
तित्थयरणामस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ३७॥ सुगमं ।
असंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणपइट्ठउवसमा खवा बंधा । अपुवकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३८ ॥
एदं देसामासियसुत्तं, सामित्त-बंधद्धाण-बंधविणट्ठट्ठाणाणं चेव परूवणादो । तेणेदेण
शंका-अपूर्वकरणके उपरिम सप्तम भागमें इनका बन्ध क्यों नहीं होता?
समाधान--नहीं होता, क्योंकि वहां तीर्थकर, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचनविषयक रागसे उत्पन्न हुए संस्कारोंका अभाव है।
आहारद्विकका बन्ध देवगतिसे संयुक्त होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ उसके बन्ध होनेका विरोध है । इनके बन्धके मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्यत्र तीर्थकर, आचार्य और बहुश्रुत विषयक राग संयम सहित पाया नहीं जाता । बन्धावान और बन्धविनटस्थान सुगम हैं, क्योंकि, ये सूत्रमें ही निर्दिष्ट हैं । दोनों प्रकृतियोंका सादिक और अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, आहारद्विकका प्रत्यय सादि और सपर्यवसान देखा जाता है।
तीर्थकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३७॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक बंधक हैं। अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभागोंको विताकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ३८॥
यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि वह स्वामित्व, बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थानका क.मं.१०.
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