Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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तित्थयरबंधकारणपरूवणी बंधवोच्छेददंसणादो। आहारदुगं विसिट्ठरागसमण्णिदसंजमपच्चइयं, तेण विणा तब्बंधाणुवलंभादो । परभवणिबंधसत्तावीसकम्माणि हस्स-रदि-भय-दुगुंछा-पुरिसवेद-चदुसंजलणाणि च कसायविसेसपच्चइयाणि, अण्णहा एदेसिं भिण्णट्ठाणेसु बंधवोच्छेदाणुववत्तीदो। सोलसकसायाणि सामण्णपच्चइयाणि, अणुमेत्तकसाए वि संते तेसिं बंधुवलंभादो । सादावेदणीयं जोगपच्चइयं, सुहुमजोगे वि तस्स बंधुवलंभादो। तेण सव्वकम्माणं पच्चया जुत्तिबलेण णवंति त्ति ण भणिदा । एदस्स पुण तित्थयरणामकम्मस्स बंधपच्चओ ण णव्वदे-णेदं मिच्छत्तपच्चइयं, तत्थ बंधाणुवलंभादो । णासजमपच्चइयं, संजदेसु वि बंधदसणादो। ण कसायसामण्णपच्चइयं, कसाए संते वि वंधवोच्छेददंसणादो बंधपारंभाणुवलंभादो वा । ण कसायमंददा कारणं, तिव्वकसाएसु णेरइएसु वि बंधदंसणादो । ण तिव्वकसाओ कारणं, मंदकसाएसु सव्वट्ठदेवेसु अपुवकरणेसु च बंधदंसणादो । ण सम्मत्तं तब्बंधकारणं, सम्मादिट्टिस्स' वि तित्थयरस्स बंधाणुवलंभादो। ण केवलं दंसणविसुज्झदा कारणं, खीणदंसणमोहाणं पि केसि वि बंधाणु
स्थानमें ही देवायुका बन्धव्युच्छेद देखा जाता है। आहारद्विक विशिष्ट रागसे संयुक्त संयमके निमित्तसे बंधता है, क्योंकि, ऐसे संयमके विना उसका बन्ध नहीं पाया जाता। परभवनिबन्धक सत्ताईस कर्म एवं हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद और चार संज्वलनकषाय, ये सब कर्म कषायविशेषके निमित्तसे बंधनेवाले हैं, क्योंकि, इसके विना उनके भिन्न स्थानोंमें बन्धव्यच्छेदकी उपपत्ति नहीं बनती । सोलह कर्म कषायसामान्यके निमित्तसे बंधनेवाले हैं, क्योंकि, अणुमात्र कषायके भी होनेपर उनका बन्ध पाया जाता है । सातावेदनीय योगनिमित्तक है, क्योंकि, सूक्ष्म योगमें भी उसका बन्ध पाया जाता है। इस प्रकार चूंकि सब कौके प्रत्यय युक्तिबलसे जाने जाते हैं, अतः उनका यहां कथन नहीं किया गया। किन्तु इस तीर्थकर नामकर्मका बन्धप्रत्यय नहीं जाना जाता–कारण कि यह मिथ्यात्वनिमित्तक तो हो नहीं सकता, क्योंकि, मिथ्यात्वके होनेपर उसका बन्ध नहीं पाया जाता । असंयमनिमित्तक भी नहीं है, क्योंकि, संयतोंमें भी उसका बन्ध देखा जाता है । कषायसामान्यनिमित्तक भी वह नहीं है, क्योंकि, कषायके होनेपर भी उसका बन्धव्युच्छेद देखा जाता है, अथवा कपायके होनेपर भी उसके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता। कपायमन्दतानिमित्तक भी इसका वन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि, तीवकषायवाले नारकियोंके भी उसका बन्ध देखा जाता है। तीव्र कषाय भी इसके बन्धका कारण नहीं है, क्योंकि, मन्दकषायवाले सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों और अपूर्वकरणगुणस्थानवी जीवोंमें भी उसका बन्ध देखा जाता है । सम्यक्त्व भी उसके बन्धका कारण नहीं है, क्योंकि, सम्यग्दृष्टिके भी तीर्थंकर कर्मका बन्ध नहीं पाया जाता । केवल दर्शनविशुद्धता भी उसका कारण नहीं है, क्योंकि, दर्शनमोहका क्षय करचुकनेवाले भी किन्हीं जीवोंके उसका बन्ध
१ अ-आप्रत्योः 'सम्मादिहिस्सु' इति पाठः ।
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