Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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५० ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १९.
पच्चक्खाणावरणीय कोध-माण- माया लोभाणं को बंधो को
अबंधो ? ॥ १९ ॥
सुगममेदं सुतं ।
मिच्छाइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा बंधा ॥ २० ॥
एदं देसामासियसुत्तं, सामित्तद्धाणाणमेव परूवणादो | तेणेत्थ अवत्तत्थाणं परूवणा कीरदे । तं जहा - एदासं पडणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, संजदासंजदम्मि बंधस्सेव उदयवोच्छेददंसणादो । एदासिं चउण्णं पिबंधो सोदय-परोदहि, कोधादीणं बंधकाले तस्सेव उद व होदव्यमिदि नियमाभावादो । एदासिं चदुष्णं पि णिरंतरो बंधो, सत्तेत्तालीसधुवबंधपयडीसु पादादो । मिच्छादिडिआदिपंचगुणट्टाणेसु जे पच्चया परूविदा मूलुत्तरभेएण तेहि.. पच्चएहि एदाओ बज्झति त्ति तेसु तेसु गुणड्डाणेसु ते ते चैव पच्चया वत्तव्वा, बंधस्स पच्चयसमूहकज्जत्तादो | अधवा, एदासिं पयडीणं बंधस्स पच्चक्खाणपयडीए' उदयसामण्णं
प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १९ ॥
यह सूत्र सुगम है |
मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक बन्धक हैं ॥ २० ॥
यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि, वह बन्धस्वामित्व और बन्धाध्वानका ही निरूपण करता है । इस कारण यहां अनुक्त अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है - इन चारों प्रकृतियों का बन्ध और उदय दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, संयतासंयत गुणस्थान में बन्धके समान इनके उदयका भी व्युच्छेद देखा जाता है । इन चारों ही प्रकृतियों का बन्ध स्वोदय- परोदयसे होता है, क्योंकि, क्रोधादिकोंके बन्धकालमें उसका ही उदय भी होना चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है । इन चारोंका ही निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये चारों प्रकृतियां सैंतालीस ध्रुववन्धी प्रकृतियों में आती हैं ।
मिध्यादृष्टि आदि पांच गुणस्थानों में जो मूल व उत्तर प्रत्यय कहे गये हैं उन प्रत्ययोंसे ये प्रकृतियां वंधती हैं, अत एव उन उन गुणस्थानोंमें उन्हीं उन्हीं प्रत्ययों को कहना चाहिये, क्योंकि, वन्ध प्रत्ययसमूहका कार्य है । अथवा, इन प्रकृतियोंके बन्धका प्रत्यय प्रत्याख्यान प्रकृतिका उदयसामान्य है ।
१ प्रतिषु ' अवृत्तद्धाणं ' इति पाठः ।
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२ प्रतिषु पच्चयाण पयडीए' इति पाठः ।
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