Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, १८.] ओघेण अपच्चक्खाणावरणीयादीणं बंधसामित्तपरूवणा [१९ वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणाणं चउगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठी सामी। दुगइसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठी सामी । बंधद्धाणं बंधणट्ठपदेसो वि सुगमो।
अपच्चक्खाणचउक्कबंधो मिच्छाइट्ठिम्हि चउब्विहो, धुवबंधित्तादो । सेसेसु गुणट्ठाणेसु तिविहो, धुवत्ताभावादो। मणुसगइ-ओरालियसरीर ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहवइरणारायणसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बिणामाणं बंधो सव्वगुणहाणेसु सादि-अद्धवो, पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो। ओरालियसरीरस्स णिच्चणिगोदेसु सव्वकालं वेउव्विय-आहारसरीरबंधविरहिदेसु धुवबंधो । अणादियबंधो च किण्ण लब्भदे ? ण, पडिवक्खपयडिबंधसत्तिसम्भावं पडुच्च अणादि-धुवभावापरूवणादो', चउगइणिगोदे मोत्तूण णिच्चणिगोदेहि एत्थ अहियाराभावादो वा । बंधवत्तिं पडुच्च पुण बंधस्स अणादियधुवत्तं ण विरुज्झदे ।
गतियोंके मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । दो गतियोंके सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धनष्टप्रदेश अर्थात् जिस स्थान तक बन्ध होता है तथा जहां बन्धकी व्युच्छित्ति होती है वह जानना भी सुगम है।
अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमें चारों प्रकारका है, क्योंकि, ये चारों प्रकृतियां ध्रुवबन्धी हैं । शेष गुणस्थानों में इनका बन्ध तीन प्रकारका है, क्योंकि, वहां ध्रुब बन्ध नहीं होता । मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभवज्रनाराचसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका बन्ध सब गुणस्थानों में सादि व अध्रुव है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है। सर्वकाल वैक्रियिक और आहारक शरीरोंके बन्धसे रहित नित्यनिगोदी जीवोंमें औदारिकशरीरका ध्रुव बन्ध होता है।
शंका-नित्यनिगोदी जीवोंमें औदारिकशरीरका अनादि बन्ध भी क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान नहीं पाया जाता, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतियोंकी बन्धशक्तिके सद्भावकी अपेक्षा करके अनादि रूपसे ध्रुव बन्धका प्ररूपण नहीं किया गया। अथवा चतुर्गतिनिगोदोंको अर्थात् चारों गतियों में होकर पुनः निगोदमें आये हुए जीवोंको छोड़कर नित्यानगोदोंका यहां अधिकार नहीं है । परन्तु बन्धकी अभिव्यक्तिकी अपेक्षा करके बन्धके अनादि और ध्रुव होनेमें कोई विरोध नहीं है।
१ प्रतिषु ' -भावपरूवणादो' इति पाठः ।
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