Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, २९. ]
ओघेण मणुस्सा अस्स बंधसामितरूणा
[ ६१
णिरयगइबंधेण सह विरोहादो । सासणो तिगइसंजुत्तं, तत्थ णिरयगईए बंधाभावादो । सम्मामिच्छाइडि - असंजद सम्मादिट्टिणो दुगइसंजुत्तं, एदेसिं णिरय - तिरिक्खगईणं बंधाभावाद। । उवरिमा देवगइसंजुत्तं बंधंति, तेसु अण्णगईणं बंधाभावाद। । णवरि अपुव्वकरणद्धाए चरिमे सत्तमे भागे वट्टमाणा अगइसंजुत्तं बंधंति त्ति वत्तव्वं । चउगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि सम्मामिच्छाइट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठिणो सामी । दुगइसंजदासंजदा, देव - णेरइएस अणुव्वईणमभावाद । उवरिमा गुस्सा चैव होण एदासिं बंधस्स सामी, अण्णत्थ पमत्तादीणमभावाद । बंधद्वाणं बंधविणद्वाणं च सुगमं । भय-दुगुंछाणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो, धुवबंधित्तादो । उवरिमेसु तिविहो बंधो, धुवत्ताभावादो । हस्स रदीर्ण बंधो सादि-अद्भुवो, पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो । मस्सा अस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ २९ ॥
एवं सामासि पुच्छा सुत्तं । तेण को बंधओ को अबंधओ, किमेदस्स बंधो पुव्वं वोच्छिज्जदि किमुदओ किं दो वि समं वोच्छिज्जंति, किं सोदएण परोदएण किं सोदय
है । सासादन सम्यग्दष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधता है, क्योंकि, वहां नरकगतिका बन्ध नहीं रहता । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इनके नरकगति और तिर्यग्गतिके बन्धका अभाव है । उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनमें अन्य गतियोंका बन्ध नहीं होता । विशेष इतना है कि अपूर्वकरणकालके अन्तिम सप्तम भाग में वर्तमान जीव अगतिसंयुक्त बांधते हैं ऐसा कहना चाहिये ।
चारों गतियोंवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। दो गतियोंवाले संयतासंयत स्वामी हैं, क्योंकि, देव और नारकियों में अणुव्रतियोंका अभाव है । उपरिम जीव मनुष्य ही होकर इनके बन्धके स्वामी हैं, क्योंकि, अन्यत्र प्रमत्तादिकों का अभाव है ।
बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छेदस्थान सुगम हैं । भय और जुगुप्साका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं । उपरिम गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है । हास्य और रतिका बन्ध सादि-अध्रुव है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध उपलब्ध है । मनुष्यायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २९ ॥
यह देशामर्शक पृच्छासूत्र है । इस कारण कौन बन्धक कौन अबन्धक, क्या इसका बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय, या क्या दोनों ही साथ व्युच्छिन्न होते हैं; 'क्या स्वोदयसे, क्या परोदयसे या क्या स्वोदय-परोदय से बन्ध होता है; क्या इसका
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