Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
४० ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १३.
मिच्छाइट्ठी णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं । अप्पसत्थाए तिरिक्खगईए सह कथं सादबंध ? ण, णिरयगई व अच्चतियअप्पसत्थत्ताभावाद । एवं सासणे वि । सम्मामिच्छाइड्डी असंजदसम्माइट्ठी दुगइसंजुत्तं बंधंति णिरय-तिरिक्खगईए विणा । उवरिमा देवगइसंजुत्तं । अपुव्वकरणस्स चरिमसत्तमभागप्पहुडि उवरि अगदिसंजुत्तं बंधंति । मिच्छाइट्टि - सासणसम्माइट्ठिसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्टिणो चदुगदिया, दुर्गादिसंजदासंजदा सामिणो, सेसा माणुस - गदीए चेव । बंधद्धाणं बंधवोच्छेदट्ठाणं च सुगमं सुत्त्ताद । सव्वेसु गुणणे सादावेदणीयस्स बंधो सादि-अद्भुवो, सादासादाणं परावत्तणसरूवेण बंधादो ।
असादावेदणीय-अरदि-सोग- अथिर असुह-अजसकित्तिणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १३ ॥
एदं पुच्छासुतं देसामा सियं, तेणेत्थ सव्वपुच्छाओ कायव्वाओ । अधवा, आसंकिय
मिथ्यादृष्टि जीव नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त सातावेदनीयको
बांधते हैं ।
शंका- - अप्रशस्त तिर्यग्गतिके साथ कैसे सातावेदनीयका बन्ध होना सम्भव है ? समाधान —— नहीं, क्योंकि तिर्यग्गति नरकगतिके समान अत्यन्त अप्रशस्त नहीं है
1
इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि भी तीन गतियों से संयुक्त सातावेदनीयको बांधते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नरक और तिर्यग्गतिके विना दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं । उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं । अपूर्वकरणके अन्तिम सप्तम भागसे लेकर ऊपरके जीव अगतिसंयुक्त बांधते हैं । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि चारों गतियोंवाले तथा दो गतियोंवाले संयतासंयत स्वामी हैं। शेष जीव मनुष्यगतिके ही स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धयुच्छेदस्थान सूत्रोक्त होनेसे सुगम हैं । सब गुणस्थानों में साता और असाताका परिवर्तित बन्ध होनेसे सातावेदनीयका बन्ध सादि और अध्रुव है ।
असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १३ ॥
यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है, इसलिये यहां सब प्रश्नोंको करना चाहिये । अथवा
१ अ-काप्रत्योः अप्पसत्थाभावादो', आमतौ ' अप्पसत्थाभावेण ', मप्रती ' अप्पसत्थत्थाभावादो
इति पाठः ।
Jain Education International
C
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org