Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ६.]
ओण पंचाणावरणीयादीणं सांतर - निरंतरबंधित्तं
सांतरणिरंतरेण य बत्तीसवसेसियाओ पयडीओ । बञ्ज्ञंति पच्चयाणं दुपयाराणं वसगयाओ ॥ १९ ॥
एत्थ पंचणाणावरणीय चउदसणावरणीय पंचंतराइयपयडीओ निरंतरं बज्झंति, धुवबंधित्तादो । जसकित्ती सांतर - निरंतरं बज्झदि' । कुदो ? मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव पत्तो सांतर-निरंतरं बज्झइ, पडिवक्खअजसकित्तीए बंधसंभवादो । उवरि णिरंतरं बज्झइ जसकित्ती, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो । तेण जसकित्ती बंधेण सांतर - णिरंतरा । उच्चागोदं मिच्छाइट्ठिसाससम्म इट्टो सांतरं बंधंति, पडिवक्खपयडीए तत्थ बंधसंभवादो । उवरिमा पुण निरंतरं बंधंति, पडिवक्खपयडीए तत्थ बंधाभावाद। । भोगभूमीसु पुण सव्वगुणट्ठाणजीवा उच्चागोदं चैव णिरंतरं बंधंति, तत्थ पज्जत्तकाले देवगई मोत्तूण अण्णगईणं बंधाभावादो । तेण उच्चागोद पि बंधेण सांतर - निरंतरं ।
एदासिं पयडीणं किं सपच्चओ बंधो किमपचओ त्ति पुच्छिदे उच्चदे - सपच्चगो बंधो, ण णिक्कारणे । एत्थ ताव पच्चयपरूवणा कीरदे । तं जहा - मिच्छत्तासंजम - कसाय
१९
शेष बत्तीस प्रकृतियां मूल व उत्तर भेद रूप दो प्रकार प्रत्ययों के वशीभूत होकर सान्तर - निरन्तर रूपसे बंधती हैं ॥ १९ ॥
यहां पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियां निरन्तर बंधती हैं, क्योंकि, ये प्रकृतियां ध्रुवबन्धी हैं । यशकीर्तिको जीव सान्तर - निरन्तर रूपसे बांधते हैं । इसका कारण यह है कि मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्त गुणस्थान तक यह प्रकृति सान्तर-निरन्तर बंधती है, क्योंकि, यहां इसकी प्रतिपक्षी अयशकीर्तिका बन्ध सम्भव है । प्रमत्त गुणस्थान से ऊपर यशकीर्ति प्रकृति निरन्तर बंधती है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है । इसीलिये यशकीर्ति बन्धसे सान्तर- निरन्तर है । उच्चगोत्रको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सान्तर बांधते हैं, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतिका बन्ध सम्भव है । परन्तु उपरितन गुणस्थानवर्ती जीव उसे निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिका बन्ध नहीं रहता । तथा भोगभूमियोंमें सर्व गुणस्थानवर्ती जीव केवल उच्चगोत्रको ही निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, वहां पर्याप्तकालमें देवगतिको छोड़कर अन्य गतियोंका बन्ध नहीं होता। इसलिये उच्चगोत्र भी बन्धसे सान्तर - निरन्तर है ।
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इन प्रकृतियोंका क्या सप्रत्यय अर्थात् सकारण बंध होता है या क्या अप्रत्यय अर्थात् अकारण बन्ध होता है ? ' इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं- इन प्रकृतियों का बन्ध सकारण होता है, अकारण नहीं। यहां पहिले प्रत्ययोंकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस
१ अप्रतौ ' बज्नंति' इति पाठः ।
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