Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ६.]
स-परोदएण बज्झमाणपयडिपरूवणा बझंति । पंचदंसणावरणीय-दोवेदणीय-सोलसकसाय-णवणोकसाय-तिरिक्खाउ-मणुस्साउतिरिक्खगइ-मणुस्सगइ-एइंदिय बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियजादि-ओरालियसरीर छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-तिरिक्खगइ-मणुस्सगइपाओग्गाणुपुब्वि-उवघाद-परघादउस्सास-आदाव-उज्जोव-दोविहायगदि-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तेय-साधारणसरीर-सुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादे। जसकित्ति-अजसकित्ति-णीचुच्चागोदमिदि एदाओ वासीदिपयडीओ सोदय-परोदएण बज्झति । एत्थ उवसंहारगाहाओ
णाणंतराय-दसण-थिरादिचउ-तेजकम्मदेहाई । णिमिणं अगुरुवलहुअं वण्णचउक्कं च मिच्छत्तं ॥ १२ ॥ सत्तावीसेदाओ बझंति हु सोदएण पयडीओ।
सोदय-परोदएण वि बझंतवसेसियाओ दु ॥ १३ ॥) एत्थ णाणावरणंतराइयदसपयडीओ दंसणावरणस्स चत्तारि पयडीओ चेव बंधमाणाणि । सव्वगुणट्ठाणाणि सोदएण चेव बंधति, मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव खीणकसाया त्ति एदासिं णिरंतरोदयादो सोदएण बज्झमाणपयडीणमभंतरे पादादो वा । जसकित्तिं मिच्छाइटिप्पहुडि
सत्ताईस प्रकृतियां स्वोदयसे बंधती हैं । पांच दर्शनावरणीय, दो वेदनीय सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायु,तिर्यग्गति,मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर,छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगति, वर्स, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण शरीर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, नीचगोत्र और उच्चगोत्र, ये व्यासी प्रकृतियां स्वोदय-परोदय दोनों प्रकारसे बंधती हैं । यहां उपसंहारगाथायें
पांच ज्ञानावरण, पांच अन्तराय, दर्शनावरण चार, स्थिर आदिक चार, तैजस और कार्मण शरीर, निर्माण, अगुरुकलघुक, वर्णादिक चार और मिथ्यात्व, ये सत्ताईस प्रकृतियां तो स्वोदयसे बंधती हैं और शेष प्रकृतियां स्वोदय-परोदयसे बंधती हैं ॥ १२-१३ ॥ ___यहां शानावरण व अन्तरायकी दश प्रकृतियां तथा दर्शनावरणकी चार ही प्रकृतियां बंधनेवाली हैं । ये अपने बन्ध योग्य सब गुणस्थानों में स्वोदयसे ही बंधती हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक इनका निरन्तर उदय रहता है, अथवा इनका पतन स्वोदयसे बंधनेवाली प्रकृतियोंके भीतर है । यशकीर्ति प्रकृतिको मिथ्यादृष्टिसे
१ सुर-णिरयाऊ तित्थं वेगुब्वियछक्कहारमिदि जेसिं। परउदयेण य बंधो मिच्छं मुहमस्स घादीओ॥ तेमदुगं वण्णचऊ थिर-सुहजुगलगुरु-णिमिण-धुवउदया।सोदयबंधा सेसा वासीदा उभयबंधाओ।गो.क.४०२-४०३.
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