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XXXII
पुण्य-पाप तत्त्व
पुण्य कर्मों का स्रष्टा है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि समस्त प्राणियों को जो अपने समान समझता है और जिसका सभी के प्रति समभाव है, वह पाप-कर्म का बंध नहीं करता है। सूत्रकृतांग के अनुसार भी धर्म-अधर्म (शुभाशुभत्व) के निर्णय में अपने समान दूसरे को समझना चाहिए।" सभी को जीवित रहने की इच्छा है। कोई भी मरना नहीं चाहता। सभी को अपने प्राण प्रिय हैं। सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है। इसलिए वही आचरण श्रेष्ठ है, जिसके द्वारा किसी भी प्राणी का हनन नहीं हो।
कौन-सा कर्म बंधनकारक है और कौन-सा कर्म बंधनकारक नहीं है, इसका निर्णय क्रिया के बाह्य रूप से नहीं, वरन् क्रिया के मूल में निहित चेतना की रागात्मकता के आधार पर होता है। पं. सुखलालजी संघवी कर्मग्रन्थ की भूमिका में लिखते हैं कि साधारण लोग यह समझ बैठते हैं कि अमुक काम नहीं करने से अपने को पुण्य-पाप का लेप नहीं लगेगा, इससे वे काम को छोड़ देते हैं। पर बहुधा उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूटती। इससे वे इच्छा रहने पर भी पुण्य पाप के लेप (बंध) से अपने को मुक्त नहीं कर सकते। यदि कषाय (रागादिभाव) नहीं है तो ऊपर की कोई भी क्रिया आत्मा को बंधन में रखने में समर्थ नहीं है। इससे उल्टे, यदि कषाय का वेग भीतर वर्तमान है तो ऊपर से हजार यत्न करने पर भी कोई अपने को बंधन से छुड़ा नहीं सकता। इसी से यह कहा जाता है कि आसक्ति छोड़कर जो काम किया जाता है वह बंधनकारक नहीं होता।19
___ अत: बंधन के भय से परोपकार की प्रवृत्तियों एवं लोकहित के अपने दायित्वों को छोड़ बैठना उचित नहीं है। क्या पुण्यकर्म (शुभकर्म) आस्रव ही है
वस्तुत: पुण्य को अनुपादेय या हेय मानने की प्रवृत्ति का मूल