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XXXIX
भूमिका कर्त्तव्य पालन धर्म ही है। वस्तुत: किसी कर्म में ममत्व बुद्धि या फलाकांक्षा का जितना तत्त्व होता है, वही उसे अशुभ या पाप में परिवर्तित कर देता है। वे पुण्य कर्म जो कर्त्तव्य बुद्धि से या निष्काम भाव से सम्पन्न किये जाते हैं, वे धर्म ही हैं। वे न तो बंधन के हेतु हैं और न मोक्ष की प्राप्ति में बाधक हैं। ऐसे कर्मों के संबंध में धर्म और पुण्य को एकात्मक या अभिन्न मानना होगा। सेवा, विनय आदि के जिन कर्मों के पीछे ममत्व बुद्धि या फलाकांक्षा जुड़ी हुई होती है, वे शुद्ध रूप में पुण्य कर्म नहीं कहे जा सकते हैं। वे पापानुबंधी पुण्य हैं क्योंकि भविष्य की फलाकांक्षा उन्हें पाप रूप बना देती है।
जिन स्थितियों में पुण्य और पाप का मिश्रण है वहाँ रागात्मकता या फलाकांक्षा की उपस्थिति उस कर्म को पुण्य से पाप के रूप में वैसे परिवर्तित कर देती है जैसे दूध में डाला गया थोड़ा-सा दही सम्पूर्ण दूध को दही में परिवर्तित कर देता है। जैन दर्शन में पाप के जो अठारह प्रकार माने गये हैं। उनमें राग-द्वेष भी हैं। रागात्मकता या फलाकांक्षा होगी वह पाप कर्म या अधर्म ही होगा। अत: ‘प्रशस्त राग' जैसे शब्द मात्र भ्रान्ति ही खड़ी करते हैं। कर्म-सिद्धांत की अपेक्षा राग कभी-भी प्रशस्त नहीं है, अत: वह धर्म नहीं है।
पुण्य क्या है? यदि इस प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर देना है तो हम कहेंगे-पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करता है। (पुनाति वा पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यम्) पुण्य की इस व्युत्पत्तिपरक परिभाषा के आधार पर उसे किसी भी स्थिति में हेय और त्याज्य नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सभी धर्मों और साधना पद्धतियों का मूल उद्देश्य तो आत्मा की पवित्रता को ही प्राप्त करना है जो तत्त्व आत्मा की पवित्रता में साधक हो वह हेय या त्याज्य कैसे हो सकता है। पुण्य की दूसरी परिभाषा