Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 276
________________ सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम ---- ----- 227 अनिष्ट अवस्था ऐसी नहीं है जो पाप, दोष, बुराई का फल न हो। जिसे अशांति, चिंता, संघर्ष, कलह, अंतर्द्वन्द्व, भय, खिन्नता, अभाव, नीरसता, दासता, विपन्नता के दु:खों से, अनिष्ट दशाओं से बचना है, उसे भोगेच्छा, स्वार्थपरता, संकीर्णता, क्रूरता, निर्दयता, वक्रता, अभिमान, लालच व सुख-लोलुपता से बचना ही होगा। इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है। कोई बुराइयों से जुड़ा रहे और फिर चाहे कि दु:ख न आने पावे, यह कदापि संभव नहीं है। संक्षेप में कहें तो समस्त दु:खों व दोषों का कारण इन्द्रियों के क्षणिक सुख का भोग है। सुख के भोगी को दु:ख भोगना ही पड़ता है। कर्मसिद्धांत के इस नैसर्गिक नियम को कोई नहीं टाल सकता है। सुख जीव का स्वभाव है। स्वभाव का अभाव कभी नहीं होता है। चाहे कुछ काल के लिए उसका अंतराल हो जाए। सुख का अनुभव स्वभाव में स्थित होने पर ही होता है। कामना उत्पत्ति के कारण अपने स्वभाव से अंतराल, अंतर, दूरी हो गई थी वह दूसरी कामना के अभाव हो जाने पर मिट जाती है जिससे स्वाभाविक सुख का अनुभव होता है। सुख कामना या विकार के अभाव से मिलता है। इस तथ्य को स्वीकार करना, अनुभव करना ही सम्यग्ज्ञान व सम्यग्दर्शन है। इस अनुभव का आदर करते हुए क्रोध-मान, माया-लोभ आदि प्रवृत्तियों का त्याग करना सम्यक् चारित्र है। क्रोध, मान, माया व लोभ के त्याग से क्षमा, मार्दव, आर्जव व संतोष के गुण प्रकट होते हैं। क्षमाशील व्यक्ति किसी से वैर व द्वेष नहीं रखता है। उसके निर्दयता, क्रूरता, कठोरता, संवेदनशीलता, स्वार्थपरता के भाव नहीं रहते हैं। वह किसी भी जीव को बुरा नहीं समझता है, घृणा नहीं करता है, वह मन से उसका बुरा नहीं चाहता है, वचन से उसकी बुराई नहीं करता है व काया से उसका अहित नहीं करता है। उसमें प्राणी मात्र को दुःखी देखकर करुणा, अनुकम्पा, दयालुता, सेवा के भाव जागते हैं। वह सर्व हितकारी प्रवृत्ति करता है, अपने सामर्थ्य, शक्ति, योग्यता व पात्रता

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