Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 292
________________ ----243 पुण्य : सोने की बेड़ी नहीं, आभूषण है ------- और आत्मा का पवित्र होना ये तीनों युगपत् होते हैं, इन तीनों में एकता एवं अभिन्नता है। दोषों व पापों का क्षय होना, गुणों का प्रकट होना, आत्म-स्वभाव का प्रकट होना है, आत्मा धर्म है और आत्मा का पवित्र होना पुण्य है। इस प्रकार पाप का क्षय, धर्म और पुण्य ये तीनों एक ही अवस्था के रूप हैं। पाप-कषायों के क्षय व कमी से क्षमा, मृदुता, सरलता आदि आत्म-गुणों का प्रकट होना आत्मा के लिए शोभास्पद है तथा इन गुणों का क्रियात्मक रूप, सहृदयता, विनम्रता, संवेदनशीलता, मधुरता, सज्जनता, उदारता, परोपकार, सेवा आदि सद्प्रवृत्तियाँ व्यक्ति के जीवन के लिए शोभास्पद है तथा इन सद्प्रवृत्तियों से सुंदर समाज का निर्माण होता है, जो समाज के लिए शोभास्पद है। इस प्रकार पुण्य आत्मा, जीवन एवं समाज इन सबके लिये शोभास्पद होने से अलंकार है, आभूषण है, बेड़ी नहीं। भूषण है, दूषण नहीं। पुण्य को आभूषण की उपमा देना भी एक अर्थ में अपूर्ण हैं। कारण कि आभूषण शरीर पर सदैव धारण नहीं किया जाता है तथा शरीर से आभूषण पृथक् होता है। अत: यह उपमा सद्प्रवृत्ति रूप पुण्य पर ही घटित होती है। आत्म-गुणों के प्रकट होने रूप पुण्य पर घटित नहीं होती है। आत्म-गुण आत्मा के अभिन्न अंग है, जो आत्मा से अलग नहीं होते हैं और सद्प्रवृत्ति यदा-कदा होती है, निरन्तर नहीं। अत: आत्मगुण तो शरीर के समान हैं और सद्प्रवृत्ति आभूषण के समान है। आशय यह है कि बेड़ी कारागार की पराधीनता की द्योतक है। कारागार उसी को मिलता है जो अपराधी व दोषी है। कारागार की श्रेणी में भेद व भिन्नता का कारण अपराधी के अपराध में भेद व भिन्नता होना है। परन्तु कारागार किसी भी श्रेणी का हो, वह अपराधी को ही मिलता है, निरपराधी को नहीं। अत: बेड़ी लोहे की हो अथवा स्वर्ण की हो, वह दोष व अपराध की अर्थात् पाप की ही सूचक है, पुण्य की नहीं। 000

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