Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 309
________________ 260---- --- पुण्य-पाप तत्त्व स्वभाव का पूर्ण नाश कभी नहीं होता है, प्रत्येक जीव में किसी न किसी अंश में स्वभाव सदा प्रकट ही रहता है। अत: प्राणी मात्र के किसी न किसी प्रकृति के रूप में पुण्य का उदय सतत रहता है। पुण्य से विकारों की उत्पत्ति नहीं होती है। विकारों की उत्पत्ति पाप से ही होती है, अत: भोगेच्छा की उत्पत्ति एवं भोग प्रवृत्ति पाप ही है, पुण्य नहीं और पुण्य का फल भी नहीं है। मोहजन्य है, मोह का फल है, औदयिक भाव है। उच्च गोत्र, यशकीर्ति, देवगति आदि समस्त पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग जब तक उत्कृष्ट न हो तब तक किसी को भी केवलज्ञान नहीं होता है और केवलज्ञान तथा मुक्ति प्राप्त न होने का हेतु पुण्य कर्म नहीं है। अपितु पुण्य के अनुभाग में कमी रहना है। उच्च गोत्र, देवगति, यशकीर्ति आदि पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग उत्कृष्ट होने पर अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान हो जाता है तथा वह जीव उसी भव में मुक्त होता है। मनुष्य भव आदि पुण्य प्रकृतियाँ साधक के लिए साधना में एवं मुक्ति में सहायक हैं। जीव के मुक्ति में बाधक कारण पाप प्रकृतियों का उदय है न कि पुण्य प्रकृतियों का उदय। क्योंकि पाप के क्षय होते ही पुण्य के स्थिति बंध का क्षय स्वतः हो जाता है। भावों की विशुद्धि पुण्य है और अशुद्धि पाप है। पाप-पुण्य का यही आधार है।

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