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पुण्य-पाप तत्त्व
घाती कर्म की समस्त प्रकृतियाँ विभाव हैं, स्वभाव नहीं हैं। परंतु अघाती कर्मों का उदय जीव के किसी गुण का घात नहीं करता है, इसलिये वे दोष रूप नहीं हैं और अघाती कर्मों के क्षय से कोई गुण प्रकट नहीं होता है अत: ये गुण रूप भी नहीं है। अर्थात् अघाती कर्म गुण-दोष रहित हैं, स्वभाव-विभाव रहित हैं।
क्रोध, लोभ, माया और मान इन चारों कषायों के क्षय (क्षीणता) से क्रमशः क्षमा, मुक्ति, ऋजुता और मृदुता ये चार गुण प्रकट होते हैं। इन चारों गुणों से क्रमश: चारों अघाती कर्मों की पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन होता है यथा- क्षमा (निर्वैरता - मैत्री) से सातावेदनीय का, मुक्ति (निर्लोभता, आदि परिग्रह त्याग) से शुभ आयु कर्म का, ऋजुता (सरलता, निष्कपटता) से शुभ नाम कर्म का एवं मृदुता (हृदय की कोमलता- निरहंकारता-विनम्रता) से उच्च गोत्र का उपार्जन होता है।
पाप के क्षय ‘क्षीणता' से और संवर- निर्जरा से आत्मा पवित्र होती है। आत्मा की पवित्रता से पुण्य कर्म का उपार्जन होता है।
पुण्य कर्म का अनुभाग बंध कषाय की उदय अवस्था में होने पर भी कषाय के उदय से नहीं होता है, कषाय के क्षय से होता है। कर्मों का
पाप कर्मों का उपार्जन कषाय से होता है और पुण्य उपार्जन कषाय के क्षय से होता है।
पुण्य कर्म के उदय के अभाव में उनकी विरोधिनी पाप प्रकृतियों का उदय नियम से होता है।