________________
258
则
पुण्य-पाप तत्त्व
सहकारी है। जहाँ धर्म है वहाँ पुण्य नियम से है। पुण्य के अभाव में धर्म संभव नहीं है।
संवर और निर्जरा में जितनी वृद्धि होती जाती है उतनी पुण्य के अनुभाग में भी वृद्धि होती जाती है।
संवर (संयम) और निर्जरा (तप) की साधना से पाप का क्षय एवं पुण्य का वर्द्धन होता जाता है।
पुण्य की वृद्धि साधक को साधना पथ में आगे बढ़ाने में सहायक होती है।
पाप की वृद्धि साधना पथ में बाधक होती है।
पाप का उपार्जन (पापास्रव) अशुद्धोपयोग एवं निर्दयता से होता है।
पुण्य-पाप की कर्म प्रकृतियों के प्रदेशों में हीनाधिकता होने से उनके अनुभाग में हीनाधिकता नहीं होती है।
पुण्य प्रकृतियाँ अघाती हैं । ये आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करती हैं इसलिये पुण्य प्रकृतियों का क्षयोपशम नहीं होता है। क्षयोपशम घाती कर्म की प्रकृतियों का ही होता है।
कषाय की कमी से पुण्य के आस्रव में वृद्धि होती है और उस समय जितना कषाय शेष रह जाता है उससे पुण्य का स्थिति बंध होता है। अत: पुण्य का स्थिति बंध जितना कम होता जाता है, उतना पुण्य का अनुभाग बढ़ता जाता है।