Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 306
________________ पुण्य-पाप विषयक ज्ञातव्य तथ्य -- ------- 257 होता है। प्राणों का विकास ही प्राणी का विकास है। प्राणबल के विकास से ही इन्द्रिय तन, मन आदि की उपलब्धि होती है। यह पुण्य कर्म का फल है जो अघाती रूप है। यदि विद्यमान कषाय में कमी हो रही है तो सत्ता में स्थित पाप प्रकृतियों के अनुभाग और स्थिति बंध में कमी (अपवर्तन) हो जाती है। यदि कषाय में वृद्धि हो रही है तो सत्ता में स्थित पाप प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग में वृद्धि हो जाती है। यह नियम है कि जिन पाप व पुण्य प्रकृतियों का वर्तमान में बंध हो रहा है, उन प्रकृतियों में सत्ता में स्थित उनकी विरोधिनी प्रकृतियों का संक्रमण हो जाता है अर्थात् विशुद्धि भाव से पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन हो रहा है तो सत्ता में स्थित पुण्य प्रकृतियों का पाप प्रकृतियों में रूपांतरण हो जाता है। आत्म-विकास के साथ पुण्य का उपार्जन व अनुभाग में वृद्धि स्वतः होती है। पुण्य का अनुभाग द्विस्थानिक से बढ़कर चतु:स्थानिक होने पर ही सम्यग्दर्शन होता है और वह पुण्य का अनुभाग आगे के सभी गुणस्थानों में चतु:स्थानिक ही रहता है। पुण्योपार्जन (पुण्यास्रव) का हेतु सर्वत्र शुद्धोपयोग तथा अनुकंपा रूप स्वभाव को ही बताया है। शुद्धोपयोग, अनुकंपा, दया को ही सर्वत्र धर्म कहा है। अत: पुण्य का उपार्जन तथा धर्म सहभावी है,

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