Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 308
________________ पुण्य-पाप विषयक ज्ञातव्य तथ्य ---- ------259 साधक जैसे-जैसे साधना मार्ग में आगे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे पूर्वोपार्जित पाप कर्मों का पुण्य प्रकृतियों में संक्रमण होता जाता है अर्थात् पाप का पुण्य में रूपान्तरण, मार्गान्तरीकरण, उदात्तीकरण होता जाता है। तीन आयु को छोड़कर समस्त पुण्य-पाप की प्रकृतियों का क्षय उनकी स्थिति बंध के क्षय से होता है और स्थिति बंध का क्षय कषाय के क्षय से होता है। अत: जैसे-जैसे कषाय में कमी आती जाती है वैसे-वैसे पुण्य-पाप कर्मों की स्थिति-बंध का क्षय होता जाता है। 'पाप' दुष्प्रवृत्ति से होता है और 'पुण्य' विषय-कषाय, राग-द्वेष, मद, वक्रता आदि दुष्प्रवृत्तियों के त्याग से होता है अर्थात् पाप की निवृत्ति से पुण्य होता है। शुभ योग से पाप कर्म की स्थिति व अनुभाग का अपवर्तन होता है, अत: शुभ योग को संवर कहा है। शुभ योग के साथ रहा हुआ कषाय रूप अशुभ भाव कर्म की स्थिति बंध का कारण है। शुभ योग कर्म बंध का कारण नहीं है। शुद्ध भाव से चेतना का आंतरिक विकास होता है, उसके साथ ही योग से बाह्य विकास भी होता है। दोष या पाप में कमी आना आंतरिक विकास है जो संवर है और प्राणशक्ति, पाँच इन्द्रिय, मन, वचन, काय आदि की शक्ति का विकास बाह्य विकास है। बाह्य विकास को पुण्य कर्म कहा गया है।

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