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--- पुण्य-पाप तत्त्व
स्वभाव से प्रतिकूल ले जाने वाली प्रवृत्ति पाप है और स्वभाव की ओर बढ़ाने वाली प्रवृत्ति पुण्य है। दया, दान, करुणा, अनुकंपा, वात्सल्य, सेवा आदि सद्प्रवृत्तियों के साथ लगे कषाय के कारण से पुण्य का स्थिति बंध होता है। करने का राग व अभिमान, कर्तृत्व भाव तथा प्रतिफल पाने की आशा रूप भोक्तृत्व भाव रूप कषाय के अभाव में किसी भी कर्म का स्थिति बंध संभव नहीं है। अत: कर्म बंध का मुख्य हेतु कषाय ही है। दया, दान, करुणा आदि आत्म-गुण बंध के हेतु नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र अध्याय 32 में कहा है- रागो या दोसो बिय कम्मबीयं' अर्थात् राग और द्वेष ये दो ही कर्म के बीज हैं, कर्म बंध के हेतु हैं। राग-द्वेष पाप हैं अत: कर्म बंध का हेतु पाप ही है, पुण्य नहीं है। पुण्य केवल सद्प्रवृत्तियों से ही होता है ऐसी बात नहीं है, क्योंकि सद्प्रवृत्तियों से जितना पुण्य का उपार्जन होता है उससे अनन्त गुणा अधिक पुण्य का उपार्जन संयम, त्याग, तप, संवर, इन्द्रिय-निरोध रूप निवृत्ति से होता है। यही कारण है कि क्षपकश्रेणि में पाप कर्मों की महान् निर्जरा व पुण्य का उत्कृष्ट अनुभाग होता है। सद्प्रवृत्तियों से जो पुण्य का उपार्जन होता है वह भी दुष्प्रवृत्ति रूप दोषों के त्याग से व दोषों में कमी होने से होता है। अत: पुण्य उपार्जन का हेतु दोषों का त्याग अथवा दोषों में कमी होना है। दया, दान, करुणा, परोपकार, अनुकंपा, वात्सल्य आदि सद्प्रवृत्तियों
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