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पुण्य-पाप विषयक ज्ञातव्य तथ्य --
भोग
-------251 का भावात्मक फल राग-द्वेष आदि दोषों को गालना है जिसमें अक्षयअव्याबाध-अनंत सुख की अनुभूति होती है और क्रियात्मक फल से श्रेष्ठ व्यक्तित्व व सुंदर समाज का निर्माण होता है। सेवा व परोपकार की जिस प्रवृत्ति से राग-द्वेष, विषय-कषाय, स्वार्थपरता, इन्द्रिय-भोग, हिंसा आदि दोष बढ़ते हों वह प्रवृत्ति बाहर से भले ही पुण्य रूप दिखे, परंतु वह पाप ही है। जिस क्रिया, प्रवृत्ति, कार्य व भाव से आत्मा का पतन हो वह पाप है और जिस क्रिया, प्रवृत्ति, कार्य व भाव से आत्मा पवित्र हो वह पुण्य है। यही पुण्य-पाप की कसौटी है। भोग पुण्य प्रकृतियों का हो अथवा पाप प्रकृतियों का, त्याज्य ही है, क्योंकि भोग मोह के उदय का सूचक तथा कर्म-बंध का हेतु है। साधना प्रवृत्तिपरक हो अथवा निवृत्तिपरक, उसमें पुण्य के अनुभाग में वृद्धि ही होती है, क्षय नहीं होता है। पुण्य के अनुभाग में क्षीणता पाप प्रवृत्तियों में वृद्धि होने से होती है। पाप की वृद्धि से ही पुण्य का संक्रमण पाप में होकर पुण्य क्षीण हो जाता है तथा पुण्य के अनुभाग का भी अपवर्तन होता है। पुण्य के उत्कृष्ट अनुभाग के समय स्थिति बंध जघन्य होता है। जबकि पाप के उत्कृष्ट अनुभाग बंध के साथ उत्कृष्ट स्थिति बंध होता है। पुण्य और पाप दोनों का ही स्थिति बंध होना व स्थिति बंध में वृद्धि होना अशुभ है कारण कि पुण्य-पाप दोनों के स्थिति बंध में वृद्धि कषाय रूप पाप की वृद्धि से होती है।