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--- पुण्य-पाप तत्त्व
की ओर बढ़ने से पुण्य का उपार्जन होता है। इसके विपरीत अवगुणों की वृद्धि से अर्थात् विभाव की ओर बढ़ने से पाप का उपार्जन होता है। अत: पुण्य स्वभाव का और पाप विभाव का द्योतक है।
पुण्य का उपार्जन किसी भी दोष से संभव नहीं है, गुण से ही संभव है। दोष ही त्याज्य होता है, गुण नहीं। गुण के त्याग का विधान कहीं नहीं है। अत: पुण्य न त्याज्य है और न हेय है, अपितु उपादेय है। दोषों की कमी से या त्याग से पुण्य का उपार्जन होता है, परंतु त्याग के साथ जुड़े सांसारिक वस्तु, सम्मान आदि के रूप में प्रतिफल पाने की भोगेच्छा से पुण्य का स्थिति बंध होता है। अत: पुण्य का अनुभाग शुभ एवं पुण्य का स्थिति बंध अशुभ है। मिथ्यात्व गुणस्थान से सयोगी केवली गुणस्थान तक कोई भी जीव प्रवृत्ति किये बिना नहीं रह सकता। अत: वह निरंतर मन, वचन, काय इनमें से किसी न किसी से कोई न कोई प्रवृत्ति अवश्य करता है। प्रवृत्ति दो ही प्रकार की होती है शुभ और अशुभ। अत: शुभ प्रवृत्ति में रत होना, अर्थात् पाप करना। यही कारण है कि कोई भी साधक यहाँ तक कि सयोगी केवली तक भी सदैव शुभ योग युक्त रहते हैं, शुभ योग का त्याग नहीं करते हैं। शुभ योग की भूमिका में ही संयम, चारित्र, सामायिक, व्रत, प्रत्याख्यान आदि धर्म संभव हैं।