Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 301
________________ 252---- ---- पुण्य-पाप तत्त्व पाप प्रकृतियों के बंध के साथ पुण्य प्रकृतियों का बंध नियम से होता है। केवल पाप प्रकृतियों का बंध कभी नहीं होता है। अत: 10वें गुणस्थान तक के जीवों के पाप के साथ पुण्य प्रकृतियों का और पुण्य के साथ पाप प्रकृतियों का बंध अवश्य होता है, यों कहें कि पुण्य और पाप दोनों का बंध निरंतर होता ही रहता है। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक सब जीवों के पुण्य व पाप की कर्म प्रकृतियों का उदय सदैव रहता है। अकेले पाप व अकेले पुण्य प्रकृतियों का उदय कभी नहीं रहता है। भावों की विशुद्धि व पाप के त्याग से पुण्य स्वत: होता है। जो कार्य शरीर, इन्द्रिय या संसार के सुख पाने की इच्छा से किया जाता है वह भोग है, पाप है, पुण्य नहीं है। _ विषय भोग की इच्छा की उत्पत्ति, विषय भोग भोगना, लोभ आदि कषाय वृत्तियों का रसास्वादन करना पापोदय का फल है तथा पाप के बंध का हेतु है। भोग तथा भोग की निमित्त सामग्री के संग्रह रूप परिग्रह को आगम में पाप कहा है। पाप को पुण्योदय का फल मानना तात्त्विक भूल है। यही कारण है कि तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती राज-पाट, धन-धान्य, भूमि-भवन आदि परिग्रह रूप पाप का व भोगों का त्याग कर साधु बनते हैं जिससे उनके पाप का क्षय होकर असीम पुण्योदय होता है। यह नियम है कि जो जितना अधिक भोगी है वह उतना ही बड़ा पापी है और जो भोग का जितना त्याग करता है वह उतना ही

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