________________
पुण्य-पाप विषयक ज्ञातव्य तथ्य
253
अधिक पुण्यवान है। यही कारण है कि जैसे-जैसे उच्च स्तरीय देवलोकों में जाते हैं विषय भोग घटते जाते हैं, पुण्योदय होने से विषय सुख की इच्छा घटती जाती है। विषयभोग व परिग्रह पापोदय का प्रतीक है।
क्षायिक, औपशमिक क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक भाव से कर्म बंध कभी नहीं होते हैं। केवल उदयभाव से ही कर्म बंध होता है, वह भी केवल मोहजन्य उदय भाव से। अन्य उदय भाव से नहीं होता है। अत: कर्म बंध का कारण मोह रूप पाप ही है पुण्योदय व पुण्य भाव नहीं।
कषाय की मंदता अर्थात् कषाय में कमी होना पुण्य है। मंद या कम कषाय पुण्य नहीं है। क्योंकि कषाय मंद हो या अधिक, अशुभ है, पाप है। पाप रूप कम कषाय को पुण्य मानना तात्त्विक भूल है। सम्यग्दृष्टि जीव के सत्ता में स्थित पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग चतु:स्थानिक होता है और पाप प्रकृतियों का अनुभाग द्विस्थानिक होता है।
जीव के सत्ता में स्थित पाप व पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बंध घटकर अंत:कोटाकोटि सागरोपम हो जाने पर ही उसे सम्यग्दर्शन होता है।
शुभ से पुण्य का और अशुभ से पाप का उपार्जन होता है। शुभ गुण होते हैं और अशुभ अवगुण होते हैं। गुण स्वभाव रूप और अवगुण विभाव रूप होते हैं, अतः गुणों की वृद्धि से अर्थात् स्वभाव