Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 290
________________ पुण्य का पालन : पाप का प्रक्षालन ---- ------- 241 ० पाप कर्म लोहे की बेड़ी के समान संसार कारागार में आबद्ध करने वाला है, अत: अकल्याणकारी है, दोष है, दूषण है। पुण्य कर्म स्वर्णाभूषण (नागल्या) के समान जीवन का शृङ्गार है, शोभास्पद है। स्वर्ण की बेड़ी नहीं है।' सारांश यह है कि पुण्य के पालन से पाप का प्रक्षालन होता है। 4 जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है। अथवा यों कहें कि पाप तो करने पर ही होता है। जबकि 'पुण्य' पाप के प्रक्षालन से, क्षयोपशम भाव से एवं दोषों के त्याग से स्वत: होता है। संदर्भ ग्रन्थ 1- तत्त्वार्थ सूत्र, अध्ययन 6, सूत्र 2-3 की राजवार्त्तिक टीका व अन्य प्राचीन टीकाएँ। 2- जयधवला पुस्तक 1, पृष्ठ 5 तथा धवला पुस्तक 7, पृष्ठ 9। 3- पंचसंग्रह का उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण प्रकरण 3 (अ) तत्त्वार्थसूत्र अ. 6 सूत्र 3 की सर्वार्थ सिद्धि टीका में 'रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम्'। 4- तत्त्वार्थ सूत्र, अध्ययन 6, सूत्र 2-3 की राजवार्त्तिक टीका। 5- जय धवला पुस्तक 1, पृष्ठ 96 गाथा 52। 6- आगमभाषयौपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकं भावत्रयं भण्यते। अध्यात्मभाषया पुनः शुद्धात्माभिमुखपरिणाम: शुद्धोपयोग- इत्यादिपर्यायसंज्ञां लभते।। - समयसार तात्पर्यवृत्ति गाथा 320, द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा 45। 8-9-10-11 भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 9, शतक 7 उद्देशक 6 तथा तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 6 सूत्र 12 से 24 तक। 12- धवला पुस्तक 12, पृष्ठ 18। 13- बहुश्रुत पं. श्री समर्थमलजी म.सा., श्री रूपचन्दजी कटारिया आदि के साथ समयसार की गाथा पर विचार। 14- मूक माटी में पुण्य प्रकरण, लेखक-आचार्य श्री विद्यासागरजी म.सा.।

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