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पुण्य का पालन : पाप का प्रक्षालन ---.
-------239 कर्मों में संक्रमण होता है। जिससे पाप कर्मों के प्रकृतिबंध व प्रदेशबंध का क्षय होता है। अत: पुण्य का परिणाम पाप कर्मों के प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध और प्रदेश बंध, इन चारों प्रकार के बन्धनों के क्षय में हेतु है। पुण्य की समस्त प्रकृतियाँ अघाती ही होती हैं, सर्वघाती व देशघाती नहीं होती है, अत: पुण्य से आत्मा के किसी गुण का कभी भी अंश मात्र भी घात नहीं होता है। पुण्य कर्म चार हैं- वेदनीय कर्म, गोत्र कर्म, नाम कर्म और आयु कर्म। इन चारों कर्मों की पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन चारों कषायों के क्षय (क्षीणता) से होता है। क्रोध (द्वेष, क्रूरता) कषाय के क्षय व कमी से (अनुकंपा, करुणा आदि) से साता वेदनीय का उपार्जन होता है।' मान कषाय (मद) के क्षय व कमी से (निरभिमानता, विनम्रता से) उच्चगौत्र का उपार्जन होता है। माया (वक्रता) कषाय के क्षय व कमी से (ऋजुता से) शुभ नाम कर्म का उपार्जन होता है।' लोभ कषाय के क्षय से (संतोष से) व कमी से शुभ आयु कर्म का उपार्जन होता है। इन चारों कर्मों की पाप प्रकृतियों का आश्रव व बंध उपर्युक्त चारों कषायों के उदय से होता है।" पुण्य का आस्रव (प्रदेश) व अनुभाग का सर्जन कषाय के क्षय (क्षीणता) से होता है। परन्तु पुण्य कर्म का स्थिति बंध (शुभ आयु कर्म को छोड़कर) उदय में रहे शेष कषायों से होता है।