Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 287
________________ 238 पुण्य-पाप तत्त्व पापास्रव का निरोध संवर है। पाप और पुण्य कर्मों का फल उनके अनुभाग के रूप में मिलता है। अतः पाप-पुण्य का आधार उनका अनुभाग है।' स्थितिबंध व प्रदेश बंध में फल देने की शक्ति नहीं है। स्थिति बंध एवं प्रदेश बंध की न्यूनाधिकता से कर्मों का फल न्यूनाधिक नहीं होता है। पुण्य के अनुभाग का सर्जन कषाय के क्षय से (कमी से) होता है, कषाय के उदय से नहीं होता है। कषाय का पूर्ण क्षय क्षपक श्रेणी में होता है। अत: वहीं बध्यमान पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है। पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग उत्कृष्ट होने पर अन्तर्मुहूर्त्त पश्चात् केवलज्ञान हो जाता है। पुण्य का अनुभाग उत्कृष्ट होने पर पुण्य परिपूर्ण हो जाता है फिर पुण्य का उपार्जन शेष नहीं रहता है। अत: वीतराग के साता वेदनीय को छोड़कर अन्य किसी पुण्य कर्म का उपार्जन नहीं होता है। पुण्य के प्रदेशों का अर्जन (पुण्याश्रव) और पुण्य के अनुभाग का सर्जन कषाय के क्षय (क्षीणता) अर्थात् शुद्धोपयोग से ही होता है। अशुद्धोपयोग से नहीं होता है। अशुद्धोपयोग से पाप का आश्रव ही होता है। ' शुद्ध आत्मा के अभिमुख करने वाले परिणाम अथवा औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक भाव शुद्धोपयोग है।" पुण्य के परिणाम से पूर्व संचित पाप कर्मों के स्थिति बंध एवं अनुभाग बंध का अपवर्तन (क्षय) होता है एवं पाप कर्मों का पुण्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314