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पुण्य-पाप विषयक ज्ञातव्य तथ्य ( पुस्तक का सार संक्षेप)
जिससे आत्मा पवित्र हो वह पुण्य है। आत्मा पवित्र होती है-राग, द्वेष, विषय, कषाय आदि दोषों में कमी आने से। अतः पुण्य निर्दोषता का द्योतक है। निर्दोषता विभाव एवं अधर्म नहीं है। इसके विपरीत जिससे आत्मा का पतन हो वह पाप है। आत्मा का पतन राग-द्वेष, विषय-कषाय आदि दोषों की वृद्धि से होता है। अत: पाप दोष का द्योतक है, दोष अधर्म है।
दया, दान, करुणा, सेवा आदि सद्प्रवृत्तियों से पुण्य का उपार्जन होता है। हिंसा, झूठ, क्रूरता, राग-द्वेष, विषय-वासना आदि दुष्प्रवृत्तियों से पाप का उपार्जन होता है।
संयम, त्याग, तप, संवर, व्रत, प्रत्याख्यान आदि समस्त निवृत्तिपरक साधनाओं से पुण्य की असीम वृद्धि होती है और पाप का क्षय होता है। इसके विपरीत विषय - कषाय, असंयम आदि से पुण्य का क्षय और पाप की वृद्धि होती है।
पुण्य की वृद्धि से पाप प्रकृतियों का पुण्य प्रकृतियों में संक्रमण हो