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पुण्य-पाप विषयक ज्ञातव्य तथ्य ----
--------- 247 है तो पुण्य का अनुभाग घटता है। पुण्य प्रकृति के अनुभाग और स्थिति में विरोध है। पुण्य का अनुभाग शुभ और स्थिति अशुभ है। किसी भी साधक के केवलज्ञान-प्राप्ति में पुण्य प्रकृतियों का उदय बाधक नहीं है, क्योंकि पुण्य प्रकृतियाँ पूर्ण रूप से अघाती होने से जीव के किसी गुण का अंश मात्र भी घात नहीं करती हैं। यदि मुक्ति-प्राप्ति के समय पुण्य के छूट जाने से पुण्य को हेय माना जाय तो उस समय यथाख्यात चारित्र भी छूट जाता है। अतः यथाख्यात चारित्र को भी हेय मानना होगा जो आगम-विरुद्ध है। पाप-पुण्य कर्मों का फल उनके अनुभाग के रूप में ही मिलता है। वीतराग केवली के आदेय, यशकीर्ति आदि समस्त पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग उत्कृष्ट होता है और मुक्ति-प्राप्ति के अंतिम समय तक उत्कृष्ट ही रहता है। अत: पुण्य का फल किंचित् भी हेय व त्याज्य नहीं है। पुण्य सोने के आभूषण के समान है जिससे आत्म-गुणों की शोभा बढ़ती है, आभूषण सौभाग्य का द्योतक होता है। पुण्य औषधि के समान है जो राग, द्वेष, विषय, वासना, कषाय, भोग आदि विकारों को, रोगों को मिटाता है। पुण्य ईंधन के समान है जो पाप रूप दोषों को जलाकर स्वयं शांत हो जाता है। पुण्य नौका के समान है जिस पर चढ़कर साधक सिद्धि पा लेता