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पुण्य का पालन : पाप का प्रक्षालन
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आत्मा जिससे पवित्र हो, वह पुण्य है। आत्मा क्षायोपशमिक, क्षायिक व औपशमिक भाव से पवित्र होती है। क्षायोपशमिक, क्षायिक व औपशमिक भाव मोक्ष के हेतु हैं।' इन भावों से कषाय क्षीण होता है। कषाय क्षीण-(क्षय) होने से सत्ता में स्थित पाप कर्मों के स्थितिबंध एवं अनुभाग-बंध का अपकर्षण (क्षय) होता है अर्थात् पाप कर्मों की निर्जरा होती है। कषाय की क्षीणता से आध्यात्मिक (आंतरिक) एवं भौतिक (बाह्य) विकास होता है। आध्यात्मिक विकास से घाती और अघाती कर्मों की समस्त पाप प्रकृतियाँ क्षीण होती हैं जिससे आत्मा की शुद्धि में वृद्धि होती है। भौतिक विकास से शरीर, इन्द्रिय, प्राण आदि की उपलब्धि होती है अर्थात् पुण्य का उपार्जन होता है। शुभ (पुण्य) से अपने को बचाना पाप है। (अ) पुण्य के उपार्जन से पाप के आस्रव का निरोध होता है।
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