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सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम --- --------229 शेष नहीं रहता है, यही कृत-कृत्य होना है, यही वीर्यान्तराय का क्षय है। जिसे भोग-विलास का, विषयों का सुख नहीं चाहिए उसे अपने सुख के लिए संसार में कोई भी वस्तु नहीं चाहिये। वह किसी से कुछ भी आशा नहीं रखता है। यहाँ तक कि अपने पास जो शरीर, इन्द्रियादि वस्तुएँ, योग्यताएँ व सामर्थ्य है उन्हें भी अपने सुख के लिए नहीं मानकर संसार के हितार्थ मानता है। उसमें असीम-अनंत औदार्य गुण प्रकट हो जाता है। इसे अनंत दान कहा है। जिसे अपने लिए किसी भी वस्तु, देश, काल, परिस्थिति आदि की कामना की आवश्यकता नहीं है, वह सदा के लिए अभाव से मुक्त हो जाता है। यही अनंत लाभ, अनंत ऐश्वर्य है। अत: जिसने भोग सुख का त्याग कर दिया उसमें बहिर्मुखी वृत्ति नहीं रहती, जिससे निज स्वभाव के, स्वाधीनता के, मुक्ति के पूर्व अखण्ड अव्याबाध सुख का अनुभव होता है, यही अनंत भोग है। अहं भाव मिटने से मार्दव, माधुर्य गुण प्रकट होता है जिसमें प्रीति का रस उमड़ता रहता है। फिर उसे किसी उपभोग की आवश्यकता नहीं रहती, यही अनंत उपभोग है।
यह नियम है कि कारण के अनुसार ही कार्य होता है। इसी नियमानुसार सम्पन्नता और विपन्नता का संबंध, आंतरिक सद्गुणोंसद्प्रवृत्तियों से एवं दुर्गुणों-दुष्प्रवृत्तियों से है। जिसके अंत:करण में सुखलोलुपता, द्वेष, घृणा, वैर-भाव, क्रोध, घमंड, छल-छद्म, लोभ, भोगविलास, स्वार्थपरता, कृपणता, क्रूरता, मिथ्याभिमान, कदाग्रह का निवास है उसका चित्त सदा अशांत, चिन्तित, भयभीत तथा अभाव, द्वन्द्व, हीनभाव, दीनभाव, नीरसता व दरिद्रता से ग्रस्त ही रहता है, चाहे उसके पास अपार धन सम्पत्ति भी हो। उसकी धन-सम्पत्ति उसके चित्त की इन अनिष्ट दशाओं से छुटकारा नहीं दिला सकती। इसके विपरीत जिसके अंत:करण में क्षमाशीलता, दयालुता, वत्सलता, सहृदयता, सरलता,