Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 281
________________ 232------ --- पुण्य-पाप तत्त्व विषय सुख की प्रतीति विषय भोग व भोग की वस्तुओं से होती है। अत: जहाँ विषय सुख का भोग है वहाँ अप्राप्त वस्तुओं की कामना, प्राप्त वस्तुओं के प्रति ममता व तादात्म्य तथा स्वार्थपरता रहती ही है। कामना से अशांति की, ममता से पराधीनता की, तादात्म्य से जड़ता की, स्वार्थपरता से संकीर्णता की उत्पत्ति होती ही है। अशांति, पराधीनता, जड़ता, संकीर्णता किसी को भी पसंद नहीं हैं। ये सभी को दुःख रूप ही लगती हैं। अत: इन दु:खों से मुक्ति पाने के लिए विषय-सुख तथा कामना, ममता, तादात्म्य का त्याग करना ही होगा। अक्षय सुख __ कामना के त्याग से शान्ति व संपन्नता की अनुभूति होती है। शांति का रस या सुख कामना पूर्ति के सुख की तरह प्रतिक्षण क्षीण होने वाला नहीं होता है प्रत्युत अक्षय व अक्षुण्ण होता है। जब तक पुनः कामना की उत्पत्ति नहीं होती है तब तक शान्ति व सम्पन्नता का सुख बराबर बना रहता है। इसमें कमी या क्षीणता नहीं आती है और न यह नीरसता में ही बदलता है। अत: शांति व संपन्नता का रस या सुख अक्षय सुख है जिसकी उपलब्धि कामना त्याग से ही संभव है। अव्याबाध सुख ममता के त्याग से स्वाधीनता की अनुभूति होती है। स्वाधीनता से स्व रस, निज रस, अविनाशी रस या सुख की अनुभूति होती है। यह सुखानुभूति अविनाशी स्वरूप की होती है। अत: यह भी अविनाशी होती है। स्वाधीनता स्वाश्रित होने से उसके सुख में विघ्न व बाधा डालने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता। स्वाधीनता ही मुक्ति है। अत: स्वाधीनता या मुक्ति का सुख अबाधित, अव्याबाध, अखंड होता है। यह अक्षय तो होता ही है, पूर्ण होने से अखंड भी होता है।

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