Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 280
________________ -----------------231 सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम - जीवित रहना व्यर्थ हो जाता है। अत: हमें जीवन में सुख तो चाहिए ही। इस प्रकार हमारे सामने दो स्थितियाँ हैं। एक तो यह है कि कामना पूर्ति के सुख के भोगी को दु:ख भोगना ही पड़ता है और हमें दु:ख भोगना पसंद नहीं है और दूसरी यह है कि यदि हम इस सुख को त्याग देते हैं तो सुख रहित जीवन भी हमें पसंद नहीं है, यह हमारे सामने समस्या है। इस समस्या का समाधान तभी संभव है जब हमें ऐसा सुख मिले जिसके साथ दुःख जुड़ा न हो, दु:ख रहित सुख हो। दुःख रहित सुख पाने के लिए हमें सुख की विविधताओं पर विचार करना होगा। सुख का एक रूप या प्रकार तो है इन्द्रियभोग से प्राप्त विषयसुख; जो इष्ट पदार्थ खाने, देखने, सूंघने, सुनने आदि इन्द्रियों के भोग से मिलता है और सुख का दूसरा रूप या प्रकार है आध्यात्मिक सुख; जो सेवा, त्याग, असंगता, मित्रता, उदारता आदि सद्गुणों से मिलता है अर्थात् जब चित्त शांत होता है तो उसको अपना एक सुख या रस मिलता है, जिसे शांत रस कहते हैं। इसी प्रकार जब हम किसी की सेवा करते हैं, जिससे उसका दुःख दूर होता है तो उससे हमें प्रसन्नता होती है। किसी गुणवान, उदारचेत्ता पुरुष को देखते हैं तो हमें प्रमोद होता है। यह प्रसन्नता व प्रमोद भी एक प्रकार का सुख है। इसी प्रकार शरीर और संसार से असंग होने से, देहातीत-लोकातीत होने से स्वाधीनता का, मुक्ति का अनुभव होता है। इसका भी अपना सुख है। प्रथम प्रकार का सुख जो शरीर, इन्द्रिय व संसार की वस्तुओं के भोग से संबंधित है उस सुख के साथ पराधीनता, विवशता, परवशता, जड़ता, मूढ़ता, शक्तिहीनता, नीरसता, रोग, बुढ़ापा, अभाव, अतृप्ति आदि समस्त दु:ख ऐसे ही जुड़े हुए हैं, जैसे काया के साथ छाया। प्रकृति का यह अटल नियम है कि विषय-सुख के साथ दु:ख रहता ही है।

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