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---- पुण्य-पाप तत्त्व की घटना की स्मृति आती है, हृदय प्रेम व प्रसन्नता से भर जाता है, अर्थात् सेवा का सुख नित्य नूतन रहता है कभी पुराना नहीं होता है, जबकि स्वार्थी व भोगी व्यक्ति को जब-जब पूर्व में भोगे भोग की घटना की स्मृति आती है तब-तब उसके हृदय से पुन: उस भोग को भोगने की कामना उत्पन्न होती है जिससे हृदय में अशांति व अभाव उत्पन्न हो जाता है अर्थात् भोग के सुख का परिणाम शून्य, दरिद्रता व दु:ख है तथा सेवा के सुख का परिणाम, नित्य नूतन व अक्षय रस की उपलब्धि एवं संपन्नता है।
सेवक का हृदय उदार होता है। उदारता विभुता प्रदान करती है। विभुता का ही दूसरा नाम वैभव है, संपन्नता है। तात्पर्य यह है कि सेवक वैभवयुक्त एवं सम्पन्न तथा स्वार्थी व्यक्ति अभावयुक्त व दरिद्र होता है। कारण कि सेवक का हृदय सदैव प्रेम के रस से सरस व हरा भरा रहता है। उसमें नीरसता, सूनापन, ऊबना, रिक्तता, खालीपन नहीं आता है। यह नियम है कि जहाँ नीरसता होती है वहाँ ही नीरसता को मिटाने के लिए नवीन सुख पाने की कामना उत्पन्न होती है। प्रेम के बिना नीरसता जाती ही नहीं, प्रेम के बिना शान्ति का रस या सुख स्थायी नहीं हो सकता तथा स्वाधीनता का सुख दृढ़ नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि कामना रहित होने से शान्ति का और राग, ममता व मोह रहित होने से मुक्ति व स्वाधीनता का रस मिलता है, जिसकी अंतिम परिणति अनन्त करुणा, अनन्त प्रेम के रस में होती है, जिसके साथ ही अनन्त ऐश्वर्य (लाभ) अनन्त सौन्दर्य (भोग), अनन्त माधुर्य (उपभोग), अनन्त सामर्थ्य (वीर्य) की अभिव्यक्ति होती है। यही सच्ची संपन्नता है।
आशय यह है कि शांति का रस अक्षय होने पर भी प्रेम के अभाव में टिक नहीं सकता। अत: शान्ति में रमण न कर मुक्ति और प्रीति के रस की उपलब्धि का पुरुषार्थ करना चाहिये। शान्ति का सम्पादन अच्छा है