________________
88 -----
--- पुण्य-पाप तत्त्व पवित्र होना ही पुण्यत्व है अर्थात् शुभ भाव से पुण्य कर्म का उपार्जन होता है तथा अशुभ भाव से अर्थात् दुष्प्रवृत्ति से पाप कर्म का उपार्जन होता है। पाप अठारह हैं। इनमें से कर्मबंध में चार कषाय मुख्य हेतु हैं, यथा-क्रोध, मान, माया और लोभ। भगवती सूत्र शतक 12 उद्देशक 5 में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों के एकार्थक नाम दिये हैं। वहाँ क्रोध के लिए अक्षमा व द्वेष शब्दों का, मान के लिए मद शब्द का, माया के लिए जिह्मता, वक्रता शब्दों का और लोभ के लिए मूर्छा, परिग्रह, तृष्णा शब्दों का ग्रहण किया गया है। अत: इन चारों कषायों के क्षय या कमी से चार गुण प्रकट होते हैं-1. क्रोध, अक्षमा और द्वेष की कमी (क्षीणता) व त्याग से क्षमा गुण, 2. मान, मद के क्षय (क्षीणता) व त्याग से मृदुता गुण 3. माया-वक्रता के क्षय व त्याग से ऋजुता, सरलता गुण और 4. लोभ मूर्छा (परिग्रह) व तृष्णा के क्षय (क्षीणता) व त्याग से संतोष गुण प्रकट होता है। इन्हें आगम की भाषा में खंति (क्षमा), मद्दवे (मार्दव), अज्जवे (ऋजुता), मुत्ती (मुक्ति-निर्लोभता) भी कहा गया है। स्थानांग सूत्र के दसवें स्थान में इन्हें धर्म कहा गया है। कारण कि इन्हीं गुणों के प्रकट होने से जीव के विभाव रूप घाती कर्मों का क्षय होता है और पुण्य रूप अघाती कर्मों का उपार्जन होता है। आगे इसी पर प्रकाश डाला जा रहा हैसाता-असाता वेदनीय कर्म का उपार्जन
वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं-1. साता वेदनीय और 2. असाता वेदनीय। इन दोनों प्रकृतियों के हेतु कहे गये हैं
कहं णं भंते! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति? गोयमा! पाणाणुकंपाए, भूयाणुकंपाए, जीवाणुकंपाए, सत्ताणुकंपाए, बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए, असोयणट्टाए, अजूरणयाए, अतिप्पणयाए, अपिट्टणयाए, अपरियावणयाए एवं खलु गोयमा! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति।।