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अहिंसा, पुण्य और धर्म ------
-------119 बताया है। क्योंकि एकांत निर्जरा का तात्पर्य बंध का सर्वथा निषेध ही है। तात्पर्य यह है कि दानादि प्रवृत्तियाँ बंध रहित एकांत निर्जरा रूप होती हैं।
भगवती सूत्र के पहले शतक में एक प्रश्नावली के माध्यम से यह समझाया गया है कि जीव आत्मारंभी, परारंभी, तदुभयारंभी और अनारभी है। संसार के सभी जीव यानी चौबीस ही दंडकों में जीव आत्मारंभी, परारंभी, तदुभयारंभी और अनारंभी यों चारों प्रकार के होते हैं। इस विषय को स्पष्ट करते हुये भगवती सूत्र शतक 1 उद्देशक 1 सूत्र 16 में इस प्रकार कहा है
जीवा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-संसारसमावन्नगा य असंसारसमावन्नगा य, तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं नो आयारंभा जाव अणारम्भा, तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दविहा पण्णत्ता, तंजहा-संजया य असंजया य, तत्थ णं जे ते संजया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पमत्तसंजया य अपमत्तसंजया य, तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया ते णं नो आयारंभा नो परारंभा जाव अणारंभा तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुहजोगं पडुच्च नो आयारंभा नो परारंभा जाव अणारंभा, असुभं जोगं पडुच्च आयारंभा वि जाव नो अणारंभा, तत्थ णं जे ते असंजया ते अविरतिं पडुच्च आयारंभावि जाव नो अणारंभा।
गौतम! जीव दो प्रकार के हैं-सिद्ध और संसारी। इनमें जो सिद्ध जीव हैं वे न आत्मारंभी हैं, न परारंभी हैं और न तदुभयारंभी हैं, परंतु अनारंभी हैं। संसारी जीव दो प्रकार के हैं-संयमी व असंयमी। इनमें संयमी दो प्रकार के हैं-प्रमत्तसंयमी और अप्रमत्तसंयमी। इनमें जो अप्रमत्तसंयमी हैं-वे आत्मारंभी नहीं हैं, परारंभी नहीं हैं, तदुभयारंभी नहीं हैं, किंतु अनारंभी हैं। पर जो प्रमत्तसंयमी हैं वे सुहं जोगं पडुच्च अर्थात् शुभ योग की अपेक्षा न आत्मारंभी हैं, न परारंभी हैं, न तदुभयारंभी हैं, अपितु अनारंभी हैं और असुहं