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पुण्य-पाप तत्त्व
इस प्रकार पाप प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति उनके स्थिति व अनुभाग के घात से होती है और पुण्य प्रकृतियों की व्युच्छित्ति उनके अनुभाग में वृद्धि होकर पूर्ण होने से होती है। अत: पाप प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति पाप प्रकृतियों के क्षय से होती है तथा पुण्य प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग की पूर्णता से होती है। ये दोनों कार्य एक ही हेतु से होते हैं। यह हेतु है कषाय में कमी होना, क्षीण होना, क्षय होना । जितना कषाय घटता जाता है, क्षीण व क्षय होता जाता है, उतना ही पाप के अनुभाग का क्षय व पुण्य के अनुभाग में वृद्धि होती जाती है। कषाय के क्षय होते ही ये दोनों कार्य पूर्ण हो जाते हैं।
कैसा विचित्र सिद्धांत है कि पुण्य-पाप कर्म दोनों परस्पर विरोधी हैं, फिर भी इन दोनों की कर्म प्रकृतियों की बंध - व्युच्छित्ति कषाय के क्षय से ही होती है। होता यह है कि क्षपक श्रेणी में कषाय के क्षय से ज्ञानावरणादि घाती-पाप कर्मों की स्थिति और अनुभाग घटकर शून्य हो जाता है जिससे ये पाप कर्म निर्मूल -क्षय-अस्तित्वहीन हो जाते हैं और क्षपक श्रेणी में कषाय के क्षय से पुण्य कर्म प्रकृतियों का अनुभाग बढ़कर पूर्ण उत्कृष्ट हो जाता है, जिससे बंध रुक जाता है। पाप कर्मों की उनके उन्मूलन के कारण से और पुण्य कर्मों की उनके अनुभाग के चरम सीमा पर पहुँचने के कारण बंध व्युच्छित्ति होती है।