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(23)] आत्म विकास, सम्पन्नता
और पुण्य-पाप
पूर्व लेखों में यह कह आए हैं कि अघाती कर्मों की पुण्य प्रकृतियाँ वीतरागता व साधना में बाधक नहीं हैं। इससे यह जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि क्या अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियाँ वीतरागता में बाधक हैं? यदि बाधक हैं तो इन्हें अघाती कैसे कहा गया?
जिससे आत्मा पवित्र हो, शुद्ध हो ऐसा विशुदयमान चढ़ता परिणाम पुण्य तत्त्व है। आत्मा का पवित्र होना आत्मा का विकास होना है। आत्मा की पूर्ण विकसित अवस्था ही मोक्ष है। पुण्य की यह परिभाषा पुण्य तत्त्व की दृष्टि से है, पुण्य कर्म की दृष्टि से नहीं है। पुण्य तत्त्व का संबंध आत्मा की पवित्रता से, आत्म गुणों के प्रकट होने से है और पुण्य कर्मों का संबंध पुण्य तत्त्व के फल के रूप में मिलने वाले शरीर, इन्द्रिय, मन, मस्तिष्क आदि सामग्री व सामर्थ्य की उपलब्धि से है। संसारी अवस्था में पुण्य तत्त्व आत्म-विकास का और पुण्य कर्म भौतिक विकास का सूचक है। इन दोनों विकासों में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। यह नियम है कि प्राणी का जितना आध्यात्मिक विकास होता जाता है उतना ही भौतिक विकास भी स्वत: होता जाता है।
पुण्य तत्त्व से विपरीत पाप तत्त्व है। जिससे आत्मा का पतन हो,