________________
आत्म विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप -----
-------201 आत्म गुणों का ह्रास हो, हनन हो, आत्मा की अशुद्धि बढ़े, ऐसे संक्लिश्यमान, गिरते परिणामों को पाप तत्त्व कहा गया है। पाप तत्त्व से दो कार्य होते हैं-1. आत्मा के ज्ञान, दर्शन, ऋजुता, मृदुता आदि गुणों का घात अर्थात् ह्रास होता है अर्थात् इन्द्रिय, प्राण आदि की उपलब्धि में, इनके अनुभाग में कमी आती है। इन्हें ही कर्म सिद्धांत में अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियाँ कहा गया है।
आध्यात्मिक विकास-हास का संबंध घाती कर्मों के क्षय, उपशम व क्षयोपशम से है। समस्त घाती कर्म प्रकृतियों का बंध, सत्ता व उदय पाप रूप ही है। इन घाती कर्मों की कोई भी प्रकृति पुण्य रूप नहीं है। घाती कर्मों के उदय से आत्म-गुणों का घात-ह्रास होता है। इसके विपरीत कषाय आदि दोषों में कमी होने से, आत्मा की पवित्रता से, पुण्य से, घाती कर्मों का क्षयोपशम, क्षय व उपशम होता है जिससे आत्म-गुण प्रकट होते हैं, अर्थात् आत्म-विकास होता है।
भौतिक विकास-ह्रास का संबंध अघाती कर्मों से हैं। अघाती कर्म की पुण्य प्रकृतियाँ भौतिक विकास व सामर्थ्य की एवं पाप प्रकृतियाँ भौतिक ह्रास की द्योतक हैं। अघाती कर्मों की पुण्य व पाप प्रकृतियों में जातीय एकता है। ये सभी शरीर, इन्द्रिय आदि भौतिक उपलब्धियों के रूप में उदय होती है। इनमें भिन्नता तरतमता की ही है। उच्च स्तर की भौतिक उपलब्धियों को पाप प्रकृतियाँ कहा गया है। जैसे इन्द्रियों की उपलब्धि को ही लें। जो जीव एकेन्द्रिय हैं उन्हें भी एक स्पर्श इन्द्रिय की भौतिक उपलब्धि है। यही जीव एकेन्द्रिय से विकास कर द्वीन्द्रिय हो गया तब इसे स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों की उपलब्धि हुई। उसका यह द्वीन्द्रिय होना आत्मविकास का एवं अनंत पुण्य वृद्धि का सूचक है। इसी प्रकार उसका त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय होना क्रमश: विशुद्धिभाव की व आत्म-विकास