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आत्म विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप ---- भौतिक अवनति ही होती है। यह नियम है कि जो मानव अपने व्यक्तिगत सुख को महत्त्व देता है वह परिवार के लिए अनुपयोगी होता है, जो अपने परिवार के सुख में संतुष्ट होता है वह समाज के लिए अनुपयोगी होता है। इसी प्रकार जो अपने वर्ग, देश, समाज, सम्प्रदाय जाति की उन्नति को ही उन्नति मानता है वह दूसरे वर्ग, प्रदेश, समाज आदि के लिए अहितकर होता है, यह भौतिक अवनति है। यह नियम है कि जो दूसरों के लिए अहितकर होता है उससे उसका भी अहित ही होता है। इसी प्रकार जो सभी के हित में रत रहता है उसका हित अवश्य होता है। यह भौतिक उन्नति है। सर्व हितकारी दृष्टि से नैसर्गिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना भौतिक उन्नति है और अपने व्यक्तिगत, सुख के लिए वस्तुओं का संग्रह करना भौतिक अवनति है। तात्पर्य यह है कि भौतिक विकास भोग-सामग्री के उपार्जन व वृद्धि में नहीं है अपितु सर्व हितकारी प्रवृत्ति में है, कर्त्तव्यपरायणता में है। निर्दोषता आध्यात्मिक विकास है और कर्त्तव्य परायणता व सद्प्रवृत्ति भौतिक विकास है।
किसी नगर में अधिक चिकित्सालय, न्यायालय, पागलखाने, अनाथालय होना भौतिक विकास नहीं है, अपितु जिस नगर में चिकित्सालय, न्यायालय, पागलखाने, अनाथालय आदि भले ही हों, परंतु वहाँ नागरिकों को उनकी आवश्यकता ही नहीं हो अथवा कम से कम हो, यह भौतिक विकास है। यह तभी संभव है जब उस नगर के नागरिक रुग्ण न हों, अपराधी न हों, विक्षिप्त मस्तिष्क न हों, भिखारी न हों। ऐसा तभी हो सकता है जब वहाँ के नागरिक संयमी हों, नैतिक हों, विज्ञ हों, सम्पन्न हों। सम्पन्न वही है जो अभावग्रस्त नहीं है। अभावग्रस्त होना दरिद्रता का सूचक है। अभावग्रस्त वही है जिसकी इच्छाओं की पूर्ति न हो। विज्ञान प्रदत्त भोग्य वस्तुएँ एवं इनके विज्ञापन इच्छाओं के उत्प्रेरक होते हैं। जिससे