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सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम
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होना है। यही भोगान्तराय-उपभोगान्तराय है। भोग-उपभोग की कामना के त्याग से स्वानुभूति होती है जिससे परमानंद होता है। यही भोगान्तरायउपभोगान्तराय का क्षय है, अनंत भोग-उपभोग है।
5. वीर्यान्तराय - यह सर्वमान्य तथ्य है कि विषय-भोगों की कामना का उत्पन्न होना और उसकी पूर्ति करना अर्थात् विषय-भोग भोगना विकार है, पाप है, आत्म- पतन का एवं कर्मबंध का हेतु है, आत्मा के लिए अहितकर तथा दु:खदायी है । विषय-भोगों की आपूर्ति भी दु:खदायी है। इस प्रकार विषय भोगों की पूर्ति और अपूर्ति दोनों ही अहितकारी तथा दुःखदायी है। वह आत्म-स्वरूप के सच्चे सुख के भोगउपभोग से विमुख एवं दूर करने वाली है, बाधक है, विघ्नकारी है, घातक है, अर्थात् अंतराय उत्पन्न करने वाली है । अत: विषय-भोगों के त्याग में ही प्राणी का हित है एवं तभी आत्म स्वरूप (स्वभाव) के अक्षय, अव्याबाध (अखंड), अनंत सच्चे सुख रूप भोग-उपभोग की उपलब्धि संभव है। इन्द्रिय व मन से विषय-भोग के लिए किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति व प्रयत्न करना पाप है, प्रमाद है। अपने कल्याण के लिए राग-द्वेष आदि दोषों को दूर करने के लिए पुरुषार्थ न करना प्रमाद है, वीर्यान्तराय है विषय-भोगों व कषाय का त्याग ही सच्चा पुरुषार्थ है, सामर्थ्य है, वीर्य है। प्रमादग्रस्त अर्थात् विषय - कषाय के सुख की दासता व प्रलोभन में आबद्ध प्राणी भोगों के त्याग का पुरुषार्थ नहीं करता है, उसकी यह पुरुषार्थहीनता, दोषों के त्याग करने की असमर्थता वीर्यान्तराय है। विषयकषाय आदि दोषों-पापों के त्याग के लिए पुरुषार्थ व पराक्रम करना वीर्यान्तराय का क्षयोपशम है और विषय - कषाय आदि दुष्प्रवृत्तियों का सर्वथा एवं पूर्ण त्याग कर निर्दोष हो जाना वीर्यान्तराय का क्षय है, अनंतवीर्य की उपलब्धि करना है।