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सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम ---
-------213 गुणों का घात व तिरोभाव होता है और घाती कर्मों के क्षयोपशम से आत्मा के क्षमा, दया, करुणा, अनुकंपा, सरलता, मृदुता, आकिंचन्य आदि सद्गुण प्रकट होते हैं। इनसे अंतराय का क्षयोपशम होता है जिससे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य गुणों का प्रादुर्भाव होता है। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इन आत्मिक गुणों का घात, अपहरण, तिरोहण होना दरिद्रता है और इन गुणों का आविर्भाव होना ही सम्पन्नता है। अत: अंतराय कर्म का उदय दरिद्रता का और क्षयोपशम व क्षय सम्पन्नता का हेतु है। यहाँ पर इसी विषय पर विचार किया जा रहा है।
अंतराय कर्म और दरिद्रता-सम्पन्नता अंतराय कर्म
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6 सूत्र 26 के अनुसार- "विघ्नकरणमन्तरायस्य' अर्थात् विघ्न करना अंतराय कर्म है।
धवला पुस्तक 13 पृष्ठ 389-“अंतरमेति गच्छतीत्यन्तरायः" अर्थात् जो अंतर आता है वह अंतराय है अर्थात् अंतराल ही अंतराय है।
“यदुदयादातुकामोऽपि न प्रयच्छति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ्क्ते, उपभोक्तुमभिवांछन्नपि नोपभुङ्क्ते, उत्सहितुकामोऽपि नोत्सहते।"
सर्वार्थसिद्धि टीका जिसके उदय से देने की इच्छा करता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्त करने की कामना करते हुए भी प्राप्त नहीं करता है, भोग-उपभोग की वाञ्छा करता हुआ भी भोग-उपभोग कर नहीं पाता है और उत्साहित होने की कामना रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है, वह अंतराय है। अर्थात् मोहनीय कर्म के उदय से किसी कामना का उत्पन्न होना और उस कामना की पूर्ति न होना ही अंतराय है।