________________
सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम
इस प्रकार काम-भोग संसार के बंधनों से मुक्त होने में विपक्षभूत (बाधकसूत्र) है और सर्व अनर्थों ( बुराईयों - दु:खों) की खान हैं। अत: जो कामनाओं से निवृत्त नहीं है वह पुरुष रात-दिन निरंतर कामना आपूर्ति के दुःख से संतप्त होता हुआ कामना पूर्ति हेतु इधर-उधर भटकता रहता है। वह अपने से भिन्न अन्य (पर) में आसक्त होकर उनकी प्राप्ति के लिए धन, सम्पत्ति की खोज में जीर्णता - जरा अवस्था (वृद्धावस्था) को तथा मृत्यु को प्राप्त होता है। वह जीवन पर्यन्त दीनता, हीनता व दरिद्रता का अनुभव करता है।
-
221
विषय-भोगों के सुखों में लुब्ध व्यक्ति, यह मेरा है, यह मेरा नहीं है, मुझे यह करना है और यह नहीं करना है, इसी में रत रहता है। इस प्रकार काम-भोग रूपी चोर उसका सर्वस्व हरण कर लेते हैं।
सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नट्टं विडंबियं । सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा।। बालाभिरामेसु दुहावहेसु, न तं सुहं काम गुणेसु रायं । विरत्तकामाण तवोधणाणं, जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 13, गाथा 16-17
भावार्थ-ज्ञानियों की दृष्टि में सब गीत विलाप रूप हैं। सब नृत्यनाटक विडम्बना रूप हैं। समस्त आभूषण भार रूप हैं। सभी काम-भोग दुःखदायक हैं।
हे राजन्! अज्ञानियों को सुंदर दिखने वाले दुःखप्रद काम-भोगों ( कामनापूर्ति) में वह सुख नहीं है जो सुख कामनाओं से विरक्त तप रूपी धन के स्वामी, शील गुणों (सद्गुणों) में रत भिक्षुओं को होता है अर्थात् समस्त काम-भोग की कामनाएँ दु:ख देने वाली हैं और सद्गुण सुख देने वाले हैं। सुख सद्गुणों में ही हैं और यही सच्ची धन-सम्पत्ति है ।