________________
सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम --- ------- 223 गर्व से (सुख के प्रलोभन व दु:ख के भय से) रहित संतोषी बुद्धिमान पुरुष पाप का उपार्जन नहीं करते हैं अर्थात् पाप कर्म और उनके फल दु:ख दारिद्रय से मुक्त होने का उपाय संतोष (सुख का प्रलोभन व कषाय का त्याग) है।
संक्षेप में कहें तो संतोष व सद्गुण ही सम्पन्नता है और तृष्णा, कामना व दुर्गुण विपन्नता-दरिद्रता है।
काम भोग प्राणी के लिए भयंकर दु:खदायी हैं, जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के 32वें अध्ययन में कहा है
जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसिक्खणे से उ उवेइ दुक्खं। दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि भावं अवरुज्झइ से।।90।
भावार्थ-जो तीव्र द्वेष को प्राप्त होता है वह प्राणी अपने ही दुर्दान्त दोष के कारण उसी क्षण दु:ख को प्राप्त होता है। इसमें मन के भाव का कुछ भी दोष-अपराध नहीं है अर्थात् इसके लिए राग-द्वेष कर्ता व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी है।
भावाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसण्णिओगे। वए वियोगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तिलाभे।।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 32, गाथा 93 भावार्थ-भावों में आसक्ति एवं ममत्व रखने वाले जीव को भावानुकूल पदार्थ के उत्पन्न करने में, रक्षण में, उपयोग करने में, व्यय में, वियोग में व्यस्त रहता है, उसे सुख कैसे प्राप्त हो सकता है? कदापि सुख नहीं होता है। उसका उपभोग करते समय भी तृप्ति न होने के कारण दु:ख ही होता है। भोगों में सुख कहीं भी नहीं है, सर्वत्र दुःख ही दुःख है।
मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 32, गाथा 96