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पुण्य-पाप तत्त्व
कसिणं वि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स । तेणावि से ण संतुस्से, इह दुप्पूरए इमे आया ।।
जहा लाहो, तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्डइ। दो मास कयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं । ।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 8, गाथा 16-17
अर्थ-यदि किसी व्यक्ति को धन-धान्यादि से परिपूर्ण यह सम्पूर्ण लोक (विश्व) भी दे दिया जाये तब भी उससे वह संतुष्ट नहीं होता। लोभासक्त आत्मा की कामनाओं की पूर्ति होना संभव नहीं हैं। क्योंकि जैसे-जैसे लाभ होता जाता है वैसे-वैसे ही लोभ बढ़ता जाता है। लाभ से लोभ बढ़ता है (घटता नहीं है) । (कपिल मुनि का) जो कार्य दो माशा सोने से ही हो सकता था, वह करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से भी पूरा नहीं हो सका अर्थात् कामनाओं की जितनी पूर्ति होती है उतनी ही अधिक नवीन कामनाओं की उत्पत्ति होती जाती है जिनकी पूर्ति होना संभव नहीं है। सभी कामनाएँ किसी की भी कभी भी पूरी नहीं होती हैं । कामना आपूर्ति ही दु:ख है। इस प्रकार कामना पूर्ति के सुख के प्रलोभन के वशीभूत प्राणी भयंकर दु:ख पाता है। जैसा कि कहा है
खणमित्तसुक्खा, बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा - अणिगामसुक्खा । संसार मोक्खस्स-विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा।। परिव्वयंते अणियत्तकामे, अहो य राओ परितप्पमाणे । अण्णप्पमत्तेधणमेसमाणे, पप्पोत्ति मच्चुं पुरिसे जरं च ।। इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं । तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कहं पमाए । ।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 14, गाथा 13-15
भावार्थ-भोगों की कामनाओं की पूर्ति से मिला हुआ सुख क्षणमात्र के लिए प्रतीत होता है और बहुत काल तक दु:ख देने वाला होता है। कामना की वृद्धि में दु:ख और निष्काम ( कामना रहित ) होने में सुख है।