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आत्म विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप ----
------- 205 तब समस्त पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग स्वतः उत्कृष्ट हो जाता है। सातावेदनीय, उच्च गोत्र, आदेय आदि पुण्य प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभाग आत्म-विकास की अपूर्णता का, पाप प्रवृत्तियों की विद्यमानता का सूचक है। आत्मा का उत्कृष्ट पूर्ण विकास शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि प्राप्त सामग्री व सामर्थ्य के सदुपयोग से ही संभव है।
कोई भी परिस्थिति ऐसी नहीं है जिसका सदुपयोग करने पर वह साधना में सहायक न हो। परिस्थिति का सदुपयोग स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा, सत्चिंतन, सेवा आदि सद्प्रवृत्तियों में करना गुण है। परंतु किसी भी गुण के बदले में कुछ चाहना भोग है। उस गुण का गर्व करना, उसमें अपनी गरिमा मानना व सम्मान चाहना अभिमान है। गुण का अभिमान और भोग दोष है। दोष कोई भी हो वह गुण का नाशक आत्म-विकास में बाधक एवं पुण्य के अनुभाग का घातक होता है। अत: वीतराग व मुक्ति पथ के साधक के लिए अभिमान आदि दोषों से रहित गुण ही उपादेय है। वीतराग के अतिरिक्त सभी जीवों में आंशिक गुण-दोष विद्यमान हैं अर्थात् राग-द्वेष, विषय-कषाय आदि दोषयुक्त गुण सभी प्राणियों में हैं। दोष गुण का घातक है। अत: जितने अंशों में दोष है, उतने अंशों में ही गुणों में कमी है। दोषों के त्याग में गुण की उपलब्धि है। राग-द्वेष युक्त सद्प्रवृत्ति तथा संयम में राग-द्वेष आदि दोष या पाप ही त्याज्य है; संयम, सद्प्रवृत्ति, शुभ योग त्याज्य नहीं है। शुभ योग के अभाव में अशुभ योग नियम से होता है। अत: शुभ योग या पुण्य त्याज्य नहीं है।
___संक्षेप में कहें तो अघाती कर्मों से निर्मित सुखद परिस्थिति का सदुपयोग सेवा में है और दु:खद परिस्थिति का सदुपयोग त्याग में है। दु:खियों को देखकर करुणित होना और सज्जनों-गुणियों को देखकर प्रमुदित