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सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम
जैनागम और कर्म सिद्धान्तानुसार सम्पन्नता सद्प्रवृत्ति का और विपन्नता (दरिद्रता) दुष्प्रवृत्ति का फल है। सम्पन्न व्यक्ति वह है जो
औदार्य, ऐश्वर्य, सौन्दर्य, माधुर्य एवं प्रीति के सुख से सम्पन्न हो और विपन्न (दरिद्र) वह है जो अभावग्रस्त, दीन, दास व दु:खी हो। अत: संपन्नता और दरिद्रता का अथवा सुख एवं दु:ख का कारण वस्तुओं की न्यूनता-अधिकता, बाह्य-सामग्री व घटनाएँ नहीं हैं, अपितु जीव के सद्गुण व दुर्गुण हैं, जैसा कि कहा है
विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणीअस्स य। जस्सेअं दहओ णायं, सिक्खं से अभिगच्छइ।।22।। जे अ चंडे मिए थद्धे, व्वाई निअडी सढे। वुज्झई से अविणीअप्पा, कट्टं सोअगयं जहा।।3।। तहेव अविणीअप्पा, लोगंसि नर-नारिओ। दीसंति दहमेहंता, छाया ते विगलिंदिया।।7।। तहेव सुविणीअप्पा, लोगंसि नर-नारिओ। दीसंति सुहमेहंता, इढेि पत्ता महाजसा।।७।। एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो। जेण कित्तिं सुअं सिग्धं, णिस्सेसं चाभिगच्छ।।।2।।
-दशवैकालिक अध्य.9, उद्देशक 2